8/10/2013

Maya-Jaal

न साथ हूँ , ना अकेली हूँ ,
यह कैसी अजब पहेली हूँ !

ना खुश हूँ ना ग़मगीन हूँ ,
बस खुद में ही तल्लीन हूँ !

ना पास हूँ ना दूर हूँ,
में कितनी मजबूर हूँ !

ना कोई अपना है ना कोई पराया,
सब खेल हैं , सब है माया !

ना सुलझी हूँ, ना उलझी हूँ ,
बस जाल में कहीं फँसी हूँ !

ना कोई दोस्त हैं ना कोई दुश्मन ,
किसे माने अपना, यह मन !

ना दुःख है ना कोई परेशानी ,
यह ज़िन्दगी लगती है बे-मानी !

ना कोई प्रश्न है ना कोई जवाब,
फिर भी दे ज़िन्दगी को हम हर-पल का हिसाब !!

------------------- वैशाली -----------------------------------

8/8/2013

Kashmakash






"zindagi na jaane kyun humse rooth gayi
hath se hi jaano choot gayi
bikhar gaye hain sapne saare
roshni sab kho gayi ....

dil kehta sanjo isse
hausla kahan se laun ?
mann ko kaise mein manau?
dil ka dard kise sunau ?

dil aur dimag ki azeeb hai yeh zad-o-zehad
toot gayi hai umeed saaari
kho di abb saari himmat e
jaane kiska hai intezaar
yamm chahe kab le bula..
chah kar bhi na chahna
kaisi hai yeh kashmakash
koi to bataye mujhe..
iss jaal se chudaye mujhe.."

..................VAISSHALI ..........................
9/8/2013

7/23/2013

'झीनी साड़ी भीनी बदरिया' .......

झीनी साड़ी पर मचले हम ,
पहन कर यूँ इतराए !
बड़ी शान से जो निकले ,
देख बदरिया  मचलाए !

           दिल आया यूँ हमपर उनका ,
            बहके-बहके वो बरसाए !
             कहाँ छिपाए हम खुद को,
             कहीं 'मन्दाकिनी ' न बन जाये !!

लिया जो हाथों में चाय का प्याला ,
देख उन्होंने दिल अपना सम्हाला !
था यह शिकवा या शरारत , कहा-
तुमने बना दिया इसे ही 'मधुशाला ' !!

            भीगे हम- तुम जो साथ में ,
            मदहोशी सी छा जाये !
            मस्ती के आलम में भीगा तन-मन ,
             न जाने मन हम कहाँ छोड़ आये !!
             न जाने मन हम कहाँ छोड़ आये !!   

4/22/2013

आज का संगीत : कहाँ जा रही है नई पीढ़ी ?

भारतीय संस्कृति में संगीत का बहुत महत्व है। सदियों से संगीत का कला जगत में अपना एक श्रेष्ठ मक़ाम रहा है। इसे  देवकला, राजकला तक कहा गया है। यह कला की श्रेष्ठता का पता इस से चलता है कि  हमारे देवता तक इस से जुड़े हैं। सरस्वती जी के हाथों  में 'वीणा', तो शंकर जी के हाथों  में 'डमरू'. विष्णु जी का शंख और कान्हा की बाँसुरी  प्रसिद्ध ही है। यह न सिर्फ देवी-देवताओ की कला है, बल्कि उनको लुभाने का एक तरीका भी है। 

           इसी परंपरा को राजा-महाराजाओं ने और आगे बढ़ाया। संगीत के कई श्रेत्र हैं- वाद्य यंत्रो का प्रयोग, स्वरों का प्रयोग(गायन), नृत्य  इत्यदि संगीत का ही रूप है। संगीत की साधना पूजा के बराबर मानी गयी है। हमारे देश में जहाँ विविध वाद्य-यंत्रो का प्रयोग होता है, वहीँ गायकी के भी बहुत से रूप है। राग-रागिनियों द्वारा परंपरागत गायकी हो या भजन, लोकगीत हो या हमारी फिल्मो का संगीत, सभी का अपना अपना एक स्थान है, जिनका आधार एक ही है। इन सभी में परंपरागत गायकी, लोकगायन और भजन को ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है। यही स्थिति नृत्य के साथ भी है। 
       
                  जैसे-जैसे वक़्त बदलता रहा, वैसे-वैसे संगीत भी। जहाँ पहले शास्त्रीय संगीत को बहुत अधिक महत्व दिया जाता था, वहीँ धीरे धीरे अर्ध- शास्त्रीय संगीत का प्रचलन बढ़ने लगा। चूँकि शास्त्रीय संगीत समझना जन-साधारण के बस की बात नहीं है। फिर जैसे-जैसे फिल्मो का चलन बढ़ा वैसे ही फिल्मी संगीत ज्यादा पसंद किये जाने लगा। 
          
                   वक़्त और ज़माने के साथ न सिर्फ भारतीय फिल्मो का रूप बदला बल्कि संगीत में भी बहुत परिवर्तन आये। जहाँ पश्चिमी देशो के प्रति आकर्षण बढ़ा  , साथ ही हम उनकी संस्कृति और संगीत भी अपनाने लगे। आधुनिकता सिर्फ कपड़ो से ही नहीं वरन लहज़े , शब्दों और संगीत से भी झलकने लगी। हमारी फिल्मे , हमारे समाज़  का आईना कहीं जाती है, और उसमे बसा संगीत हमारी भावनाओ को उजागर करने का एक स्रोत। आज के दौर में जहाँ हम पश्चिम का अनुसरण कर  मधुरता,कानों  में मिश्री घोल देने वाले संगीत को छोड़  तेज़ , भड़काऊ, संवेदना विहीन संगीत सुननाने लगे है , वहीं गानों के बोल में भी तेजी से गिरावट आई है। यही चिंता का विषय है। 
        
            बात सिर्फ संगीत की होती तो शायद इतना फर्क नहीं पड़ता किन्तु जिस तरह के बोलो  का प्रयोग होने लगा है, उस से समाज की गिरती सोच का पता चलता है। साथ ही पसंद करने वालो की सोच का भी। हम जिस तरह का संगीत सुनते है, जिस तरह के गाने गाते है, धीरे-धीरे हमारी सोच भी वही रूप ले लेती है।  दिन-प्रतिदिन गानों में गालियों का बढ़ता उपयोग वाकई चिंता का विषय है। हमारी नई  पीढ़ी किस ओर  जा रही है ? वहां कभी मीठे बोल और मधुर संगीत होता था , प्रेम को इश्क कहकर नवाज़ा जाता था अब वही इश्क 'कमीना' हो गया।  ' यारी है ईमान मेरा , यार मेरी ज़िन्दगी', 'तेरे जैसा यार कहाँ,' जैसे दोस्ती को एक मुकाम देने वाले गानों की जगह " हर एक दोस्त कमीना होता है' जैसे फूहड़ गानों ने ले ली है। लडकियाँ  भी 'जवानी' की नुमाइश से खुश होकर खुद को 'सेक्सी' कहलाने से परहेज़ नहीं करती। हद तो तब पार हो गयी जब लेखको और गायकों ने गालियों के साथ अति अश्लील गाने प्रस्तुत किये और हमारी आज की पीढ़ी उनको मज़े लेकर न सिर्फ सुनती है बल्कि उन गानों पर थिरककर खुद को 'आधुनिक' और 'कूल' समझने लगी। 

             जिस तरह न सिर्फ संगीत बल्कि संस्कृति का ह्रास हो रहा है, उसे देखते हुए बार बार ये सवाल ज़ेहन में उठ खड़े होते है कि -" क्या चाहती है आज की पीढ़ी ? कहाँ जा रही है ? दिशाहीन होती नई  पीढ़ी के इस रवैये से क्या हश्र होगा उनका? 
            हम बस समझा सकते है, फिक्र कर सकते है और कुछ नहीं, बाकी के प्रयास तो उन्हें खुद करने होंगे। अपने माप-दंड भी खुद ही तय  करने होंगे। 

      
                    

4/15/2013

विचार - विमर्श (चर्चा ) या बहस ??

                                                              
हम भारतीय लोग बहुत बोलते है। अन्जान  भी कुछ ही पलों  में जान-पहचान वाले बन जाते हैं। हम कभी झिझकते नहीं कुछ भी पूछने से, चाहे वह रास्ता ही क्यों ना  हो, और सुझाव देने को तो तत्पर रहते है। किसी को भी यदि हम बिन माँगे ,मुफ्त में कुछ देते है तो वह  है सलाह। हर एक भारतीय के पास खुद की समस्या के अलावा दूसरी हर एक समस्या का कोई न कोई हल तो जरूर है।  बस किसी ने समस्या बताई नहीं और हम सलाह / सुझाव देना शुरू कर देते है, सामने वाले ने आपसे माँगा हो या न माँगा हो , इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह हमारे व्यवहार का अभिन्न अंग है। 

              वैसे देखा जाये तो बात-चीत के सही तरीको से भी हम अक्सर अनजान पाए गए है।  बात-चीत के कई भाग होते है जिनसे हम स्कूल - कॉलेज में रूबरू तो होते है किन्तु रोज़िन्दा जीवन में बात करते वक़्त भूल जाते है। जैसे - साधारण बात-चीत, विचार-विमर्श करना, बहस  इत्यदि। हमे  ये  शब्द पता है और उनके अर्थ भी किन्तु रोज़मर्रा में हम बात करते वक़्त यह फर्क नहीं रख पाते कि  कब क्या होना चाहिए। साधारण सी बात-चीत कब बहस में परिवर्तित हो जाती है हमे पता ही नहीं चलता। 
       
                  विचारों  का आदान-प्रदान या विचार-विमर्श करना हमारे लिए संभव ही नहीं है,क्यूंकि हमे सही मायनो में यह तक नहीं पता कि  विचार-विमर्श करना है क्या? यह बहुत समझने वाली बात है, हम बहुत बार कहते तो जरूर है कि  चलो विचार-विमर्श ( Discuss) करते है , पर क्या हम कर पाते है ?  विचार-विमर्श करना  अर्थात " किसी एक विषय पर अपने- अपने विचार प्रस्तुत करना। " ज्ञान में निहित सक्षम विवेचना ही चर्चा है। " अर्थात अपने ज्ञानपूर्ण विचारो की ठोस प्रस्तुति। मकसद अनेक हो सकते है जैसे- किसी समस्या के समाधान पर पहुचना, अपने विचारो से दूसरो को अवगत कराना साथ ही दूसरो के विचारो को जानना, उस विषय को गहराई से जान पाना,  एक अच्छा  श्रोता बनने की कला सीखना  इत्यदि।  

                  बात वही आ जाती है कि  क्या हम ऐसा कर पाते है ? किसी भी विषय पर या तो हम सहमत होते है या असहमत। सहमत हुए तो अक्सर हम हाँ में हाँ मिलकर खानापूर्ति करने की कोशिश करते है , तो भी विचार-विमर्श नहीं हो  पाता। अगर हम असहमत हुए तो फिर विचार-विमर्श संभव ही नहीं है, क्यूंकि तब हम तर्क-वितर्क  पर उतर आते है, और अपनी ही बात को सही साबित करने में जुट जाते है और भूल जाते है की क्या करने बैठे थे। तब हमारा एक ही मकसद हो जाता है कि  कैसे भी , तर्कों से या कुतर्को से  बस अपनी बात सही साबित कर दे। तब विचार विमर्श , बहस का रूप ले लेती है। हम सामने वाले तो पूरी बात कहने का मौका ही कहाँ देते है ? बीच में ही उसकी बात काट कर अपने विचार थोपने की कोशिश करने लगते है।   हर बात पर बहस करना हमारी आदत सी बन चुकी है। हम हमेशा यही सोचते है कि - बस मैंने जो कहा वह सही , बाकी सब गलत।  हर जगह हमारा अहम् आड़े आ जाता है और हम इसके पार कभी सोच ही नहीं पाते है। साधारण सी बात-चीत में भी अक्सर ऐसा ही होता है। 

          हमें बहुत उतावलापन न दिखाते हुए, सामने वाले की बात को पूरी तरह सुनना चहिये, फिर अपने विचारो  से सबको अवगत कराना उचित होता है। जरूरी नहीं कि  वह आपसे हमेशा ही सहमत हो क्यूंकि' हर एक का अपना व्यक्तित्व और दिमाग है, जो आपके अनुसार नहीं उसके खुद के अनुसार ही चलेगा। बस सुनिए,फिर कहिए और बहस को अपनी आदत न बनाइये और फिर फर्क देखिये। :)
                                This is My 51th Post :)

4/08/2013

लेना - देना

                                         
  
लेना और देना दुनिया की बहुत पुरानी  रीत है। कहा जाता है कि - यह दुनिया, रिश्ते-नाते, दोस्ती-यारी सभी कुछ एक व्यापार की तरह ही है। जहाँ एक हाथ ले और एक हाथ दे , वाली बात होती है। कोई भी रिश्ता लम्बे समय तक एक तरफ़ा नहीं चल सकता है। प्यार भी एक तरफ़ा अपना वजूद खो देता है। प्यार की आग भी दोनों तरफ बराबर लगी हो , तब ही सही मन गया है।  पर क्या यह लेन-देन  हमेशा समान पैमाने पर ही होता है क्या ?

  क्या लेना और देना जरूरी है ? आपको किसी ने कुछ दिया , तो क्या आप वही उसको लौटाए , यह जरूरी है ? हम चीजों  का , सामान का व्यापार तो करते ही है, साथ ही साथ अनमोल से रिश्तों  का भी व्यापर कर बैठते है। रिश्तो में भी मतलब और फ़ायदा ढूंढते है। जिस से जितना फ़ायदा उस से उतना ही रिश्ता। 
    कुछ लेन -देन  रिश्तो  को बनाये रखता है तो कुछ उनके टूटने की वजह बन जाता है। जरूरी और समझने वाली बात यह है कि - हम खुद को कितना जानते है ? दिखावा करते वक़्त तो हम अपने आप को सबसे उपर, प्रत्येक रूप से, दिखाते है, पर जब आचरण करने की बात है या फिर झगडा करने की तो हमारा सही चरित्र सामने आ जाता है।  लेन -देन  का सबसे विकृत स्वरुप देखने मिलता है तो झगड़ो मे… क्युंकि तब होता है - अपशब्दों ( गालियों) का लेन  -देन। 
        असली लडाई/ झगडा शुरू ही होता है अपशब्दों से। किसी ने आपको अपशब्द कहे और हम शुरू हो गए लड़ना कि - " गाली क्यों दी" ? पर मेरा प्रश्न यह है कि  मन उसने अपने चरित्र के हिसाब से गाली दी ,पर आपने उस से "ली " क्यों ? कोई आपको कचरा या फ़ालतू सामान मुफ्त में देना तो क्या आप ले लोगे ? नहीं ना… !!तो फिर उसके दिए अपशब्द आपने लिए क्यों ? कोई आपको, मान लो कि  "कुत्ता" ( बहुत अधिक बोला जाने वाला अपशब्द) कहे , तो क्या आप बन जाओगे ? यदि अच्छे रूप में "प्रधानमंत्री" कहे तो भी क्या फर्क आएगा? आप वह बन तो नहीं गए ना?
फ़िर ..?? सोचने वाली बात है…. 

     भगवन ने आपको दो कान और उन्ही दोनों कानो के बीच दिमाग क्यों दिया है ?? कभी सोचा है आपने ?? 
   कोई अच्छा कहे तो हम तुरंत प्रसन्न हो जाते है और बुरा कहते ही क्रोधित , इसका मतलब तो यही हुआ कि  हम बिना अपने दिमाग का इस्तेमाल किये सब कुछ बस लेने में ही विश्वास  करते है। अच्छा तो उसी पल लौटते नहीं किन्तु बुरा , खुद नीचे गिरकर भी , उसी पल देने में देरी नहीं करते। अच्छा देने में यह आतुरता कहाँ चली जाती है? 
      हमे भगवन ने दोनों कानो के बीच दिमाग इसलिये दिया है कि  -हम एक कान से सुने, फिर दिमाग का इस्तेमाल करके अच्छी बातों  को रखे और बाकि सब दुसरे कान से निकाल दे।  " गवाँर  की गाली - हँस  कर टाली ". मेरे पिता द्वारा बचपन में सिखाया हुआ यह पाठ , आप यकीन मानिए , ज़िन्दगी में मेरे बहुत काम आया है। जब भी कोई अनजान या नज़दीकी  व्यक्ति कोई चुभती बात कह दे और वह बात आपकी शान्ति भंग कर दे और आप लड़ना भी न चाहे तो बस इसी वाक्य को ध्यान में लायें और फिर देखे चमत्कार , आपकी शान्ति वापस आ जाएगी। 
         

3/25/2013

प्यार और सम्मान की सच्ची अधिकारिणी

                                             
सदियों से चली आ रही परंपरानुसार कहा ही गया है कि "प्यार और सम्मान पर पहला हक परिवार के बुजुर्गो का है। हाँ ! यह सत्य है , पर ज़िन्दगी जैसे - जैसे आगे बढती है हमारे रिश्ते और विस्तृत होते चले जाते है। हर रिश्तो के अपने मायने है और उनको निभाने के तौर तरीके भी विभिन्न है। जैसे - माता-पिता से, पत्नी से, बहिन से,पति से दोस्तों से, रिश्तेदारों से ..इत्यादि। 

         हमारे देश में रिश्ते निभाने में विश्वास किया जाता है, हर पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को यह जरूर सिखाने की कोशिश करती है। हर रिश्ते की अपनी अलग सीमाएँ  होती है जिन्हें लांघना उचित नहीं होता है। इन अनेको रिश्तो में अपने अलग रंग और अलग भावनाएँ होती है। हमारे देश में तो दुश्मन को भी एक रिश्तेदार की तरह मानकर , दुश्मनी का रिश्ता भी बखूबी निभाया जाता है। कहीं रिश्ता सिर्फ सम्मान'का, कहीं दोस्ती का, कुछ खट्टे-मीठे , तो कुछ प्यार भरे होते है। कुछ रिश्ते ऐसे होते है जिन्हें आजतक कोई समझ नहीं पाया है, और उसे किसी एक भावना के साथ भी जोड़ा नहीं जा सकता है, जैसे की ..बहु का ससुराल वालो से रिश्ता, या दुसरे शब्दों में कहे तो " सास-बहु" का रिश्ता। 

         एक स्त्री जो बेटी, बहिन बनकर पैदा होती है, बड़ी होकर प्रेयसी, पत्नी, बहु बनती है और फिर माँ। इन सभी रिश्तो को वह बखूबी निभाती है। जीवन के हर मोड़ पर खुद को सबके पीछे रखती है। फिर भी आज तक वह उस सम्मान की अधिकारिणी नहीं बनी जो उसका हक है। 

      एक लड़की को जन्म के बाद उम्र के हर पड़ाव पर उससे प्यार और सम्मान देना सिखाया जाता है, पर यह नहीं सिखाया जाता कि  वह भी उसी प्यार और सम्मान की समान हक़दार है। जब वह बहु बनकर ससुराल में कदम रखती है तो उसे महसूस कराया जाता है की उसका खुद का तो कोई सम्मान है ही नही । नाजो से पली बढ़ी वही लड़की का जीवन, मात्र सिन्दूर लगा लेने और मंगलसूत्र पहन लेने से, पूरी तरह बदल जाता है। परायो के बीच रहकर उसे खुद को उनका अपना साबित करना होता है। परिवार का हर व्यक्ति उससे प्यार और सम्मान की भरपूर आशा रखता है , पर क्या कभी उसे भी उतना ही मिल पता है ??

           देखा और सोचा जाये तो सही मायनो में तो प्यार और सम्मान की पहली अधिकारिणी घर की बहु होती है। आप उसे ब्याह कर, गाजे बाजे के साथ अपने बेटे और पूरे परिवार की ज़िन्दगी में लाते है, बहुत प्रेम से उसका गृह प्रवेश करते है।  आप तो सभी अपनों के बीच है, एक वही अकेली होती है जो कि  परायो के बीच होते हुए भी उन्हें अपना समझती है। ऐसे में ससुराल वालो का कर्तव्य होता है कि  उस से आशा न रखते हुए , उसे प्यार और सम्मान दे।  पहले देने का सोचे फिर पाने का। कहा ही गया है कि  " जो हम बोते है , वही हम काटते (पाते) है। 

    एक लड़की का बहु के रूप में दूसरा जन्म सा होता है क्यूंकि वह दुसरे परिवार में जाकर नए सिरे से उनके रीति -रिवाज़ , रस्में , तौर-तरीके इत्यादि सीखती है। वह एक कोरे स्लेट की भांति  होती है , जो उसे सिखाया जाता है वही वह करती जाती है। उससे हमेशा कर्तव्यो में बेटी की तरह उम्मीद रखी जाती है और व्यवहार एक बहु ( परायी लड़की) की तरह किया जाता है , आप बबूल बो कर , आम की उम्मीद कैसे कर सकते है ?? यदि वह आपका व्यवहार आपको ही लौटाती है तो क्या गलत करती है ?   इस तरह वह बढती दूरियों में एक अलग घर या अपने अलग आशियाने का सोचती है तो कुछ गलत नहीं करती है। 
      
           प्यार और सम्मान का पहला अधिकार पाने की अपेक्षा रखने वालें , पहले उसे देना तो सीख ले। जब तक आप उसे पूरे दिल से , सम्मान से पहले दिन से ही प्यार से नहीं अपनाएंगे तो यह दूरियां कभी मिट नहीं सकेंगी। यदि आप एक कदम उसकी और बढ़ाएंगे तो यक़ीनन वह चार कदम बढ़ाएगी क्युकी यही स्त्री है, उसका व्यक्तित्व है, भगवन ने उसे ऐसा ही बनाया है। 

                बहु को बेटी बनाकर तो देखिये, दूरियों का नामोनिशान तक नहीं होगा और वह एक नहीं दो परिवारों की बेटी बन जाएगी। प्यार और सम्मान के अधिकार की लडाई ही कहाँ रह जाएगी? 

" जन्म-जन्मो से वह बस कर्तव्यो को पहचानती है,
  प्यार और सम्मान मिले ,अधिकारों को कहाँ जानती है ?? "
     

3/16/2013

अलादीन का जादुई चिराग-3 :- कठिनाइयाँ या सरलता ??



जीवन लहरों सा होता है, कभी बहुत तेज़ तो कभी शान्त। उतार और चढ़ाव, ये  जीवन के अभिन्न अंग है। हम चाहे तो भी इनसे दूर नहीं नहीं जा सकते। वैसे भी प्रकृति का नियम है कि  हम जिस चीज़ या बात से जितना दूर भागते है वही हमारे उतने ही नज़दीक आ जाती है।

        लाखों  लोग है दुनिया में जो ऊँचाई  छूने  की आकांक्षा रखते है किंतु  कुछ ही लोग उसे छू  पाते है, बाकि सभी किस्मत के ऊपर  इल्जाम  लगा कर अपने मन को संतोष दे देते है। किन्तु यह सत्य नहीं है, किस्मत ,वक़्त  - ये शब्द  बहाने है , अपनी हार न मानने और अपनी हार का हार किसी और को पहनाने के लिए।  सत्य यह है कि  - हमारे जीवन में हमारे कार्य से जुडी हर एक नाकामयाबी हमारी अपनी है, 99 % हम अकेले ही जिम्मेदार होते है। 

       हम सपने तो बहुत देखते है, देखना भी चाहिए।  सपने, मंजिल पर पहुँचने की पहली सीढ़ी मात्र है।   हमे समझना होगा की यह सीढ़ी मात्र है , मंजिल नहीं।  क्यूंकि  " सपने सिर्फ देखने मात्र से पूरे नहीं हॊते, कार्य करने से पूरे होते है। "  उन्हें पाने के लिए सही दिशा में, सही तरीकों  से निरंतर प्रयास करना जरूरी होता है।  असफल होना बुरा नहीं किन्तु असफल होने के कारण  खोजने जरूरी है, जो अनेको हो सकते है , जैसे - शायद दिशा ही गलत चुनी हो, कार्य करने के तरीको में कमी हो, मेहनत  में कमी रह गयी हो, या हमे खुद पर ही    १०० % विश्वास न हो, या जो कार्य हम कर रहे है वह हमारी आत्मा की आवाज़ न हो। 

            एक सर्वे के अनुसार भारत देश में अधिकतर लोग वह काम करते है, जो उन्हें करना पड़ता है, अर्थात वो अपने दिल से नहीं , अपनी पसंद का नहीं बल्कि परिवार के कहने पर या किसी अपने के कहने पर या परिस्थिति वश करना पड़ता है। ऐसे किये हुए काम सिर्फ काम बनकर ही रह जाते है , ऊंचइयो पर नहीं पहुचाते । हमे अपना काम अपनी रूचि के अनुसार चुनना चहिये। 

              ज़िन्दगी की जंग में कभी हार तो कभी जीत होती है। हार तब होती है, जब हम मान लेते है। न मनो तो हार मुमकिन ही नहीं है।  कहा ही गया है कि - " मन के हारे हार, मन के जीते जीत "।  हम अपने अवचेतन मन में क्या सन्देश भेजते है, उसी पर हमारी हार और जीत संभव होती है। यदि हम कठिनाई पर ध्यान देंगे तो वही बार बार आएगी और यदि हम उस पर ध्यान न देते हुए यह सोचे की इस से निकलने के और क्या रास्ते है ?, तो हमे यकीनन राह मिल जाएगी । हम क्या सोचते है इस पर हमारी कामयाबी और नाकामयाबी दोनों ही टिकी हुई है। यदि हम दिल से यह मान ले की सब कुछ सरल है , आसान  है तो सच मानिये, आपकी वह कठिनाई , सरलता में बदल जाएगी । पर बात बस इतनी ही है कि  वह सोच,वह आवाज़ दिल से आनी  चाहिए, पूरा विश्वास होना चाहिए ।
             
 दुनिया में सच मने तो ऐसी कोई कठिनाई नहीं है जो हमे कुछ अच्छा  न देकर गयी हो।  सही मायनो में कठिन कुछ होता ही नहीं है , वह तो बस हमारे दिमाग की उपज है। हम राह  में आई रूकावटो को किस रूप में लेते है यह हमारी सोच का ही परिणाम है ..मान लो तो पहाड  है ,नहीं तो कंकर ।  यदि हम ज़िन्दगी के सबक सीखकर आगे नहीं बढ़ते है तो इसमें " भगवन जी " या हमारी " किस्मत" का कोई दोष नहीं है।  सब कुछ दुनिया में आसन है / सरल है  , बस मन में विश्वास होना चहिये। " इरादे पक्के हो तो राहें  बन ही जाती है "।  ठान  लो तो सब कुछ सरल है , आसान है । 

         जीत कठिनाई में नहीं , सरलता में है। जीतना है तो सबकुछ सरल करना सीख लेना चहिये। क्यूंकि दुनिया में बहुत से लोग ऐसे है जिनके लिए वही काम सरल है जो आपको कठिन जान पड़ता है। सोचकर देखिएगा तो जान जायेंगे कि  कुछ भी कठिन नहीं है। 

" दिल की आवाज़ को पहचान लो , 
   मन में बसा लो,एक नई  पहचान लो ।"
         

3/08/2013

निर्णय - सही / गलत

मानव मन कितना विचलित होता है। वह हर अपनी चीज़ को बहुत पसंद करता है, चाहे फिर वह रिश्ते हो या भौतिक साधन। यहाँ तक कि  उसे अपनी पसंद-नापसंद पर ख़ास इख्तियार होता है। इसी तरह हर एक बात पर  उसका अपना एक ख़ास नजरिया होता है, जिससे वह अत्यधिक जुड़ जाता है। 
   
       हमारे चारो ओर अनगिनत घटनाएँ घटती  है। कुछ हमे पसंद आती है और कुछ नापसंद। घटना पर हमारी नज़र पड़ते ही उस विषय में हमारी अपनी एक राय  कायम हो जाती है। कुछ घटनाएँ हमारे साथ घटती है तो कुछ हमारे चारो ओर  रहने वले हजारो लोगो में से किन्ही के साथ। सभी लोग अपनी नज़र से उसे देखते और तौलते है। किन्तु हर बार हर व्यक्ति अपने नज़रिए को ही सही क्यों मानता है ? क्यों हम दूसरो की ज़िन्दगी के सही/गलत को अपने नज़रिए से क्यूँ तौलते है ? क्या सचमुच यह अधिकार है हमें ?

                            सच पूछा  जाये तो  हमें जवान होते अपने बच्चे की ज़िन्दगी से जुड़े फैसले बिना उसकी सहमति से , लेने का भी अधिकार नहीं है।  फिर भी हम दुनिया में दूसरे लोग किस तरह की ज़िन्दगी, क्यों बसर कर रहे है , पर सवालिया निशान  लगाने का क्या हक है ? जबकि हम न तो उनकी ज़िन्दगी की हर बात को जानते है। बस जो सामने दिखा  उस पर अपनी राय  बना लेना और उसपर सही/ गलत का फैसला भी खुद कर लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ? बहुत आसान होता है दूसरो को गलत बताना , किसे क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए कैसे करना चाहिए ...इत्यादि पर खुद ही निर्णय ले लेना , पर क्या कभी यह सब करते वक़्त हम सोचते है ? कि  किसी पर एक उँगली  साधते वक़्त बाकि की तीन  उंगलियाँ  हमारी ओर  ही होती है।  हम नौकरी , व्यापार और रोजिंदा के निर्णय जैसे कपडे लेने से शादी तक के लिए दुनिया की सलाह लेने जाते है ? या किसी  के विरोध करने पर ( अपनों के सिवाय) अपने निर्णय को बदल लेते है ? नहीं ना ??

            पहचान बन चुके चेहरों पर चूँकि उँगली  उठाना बहुत सरल है और यह हमारा धर्म बन गया है। क्या सही है क्या गलत है  सबको  यह बताना हमारी आदत  बन गयी है। संस्कृति की दुहाई देने वालो से विनम्र विनंती है कि  कृपया जाएँ और हमारी अपनी विशाल संस्कृति का अध्यन करे, उसे अच्छी तरह समझे और फिर निर्णय ले।  ऐसा निर्णय जो किसी की आज़ादी में बाधक न बने। हमारी संस्कृति वह नहीं है जो कि  १० ०  या १ ० ० ०  वर्ष पहले पुरुषो द्वारा  बनाये  कुछ नियम। बल्कि वह तो लाखो करोडों  वर्ष पुरानी है। .......

मंथन कीजियेगा ....!!

    
         

3/05/2013

अलादीन का जादुई चिराग -2 : चमत्कार

                                                                       
पिछले अंक में हमने जाना था कि  हम जादुई चिराग को अपने जीवन में ला  सकते है, सकारात्मक सोच से। वह सकारात्मक सोच को जीवन में कैसे लाया जाये यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है।  सकारात्मक सोच तो धरातल ( नीवं) है।  सबसे पहले हमे नीव को मजबूत करना होगा। उसके लिए जरूरी है की आप इस लेख को खुले दिल और दिमाग से पढ़ें। बिना आलोचनात्मक रवैया अपनाये।  बस ध्यान से  पढ़िए और बाद में निर्णय कीजियेगा। 
      हमारा अवचेतन मन ही हमारे जीवन का आधार है। जाने-अनजाने जो भी नकारात्मक विचार हमारे मन में आते है, उन्हें अवचेतन मन ग्रहण करके जीवन में उतार देगा।  जैसे कि  आप सोचेंगे कि  -" मेरे जीवन में बहुत कठिनाइयाँ है। "  बस यह  आपके अवचेतन मन में गया और आपके जीवन में कठिनाइयाँ दिन-दुनी रात चौगुनी प्रगति करने लगती है।  इसलिए  सबसे पहले जरूरी है -" नाकारात्मक सोच का त्याग".  जो भी सोचे और जो भी बोले बस सकारात्मक होना चाहिए। छोटी छोटी रोजाना की बातें है जिन्हें बस बोलने का तरीका बदल दे तो काफी कुछ बदलने लग जायेगा। जैसे- " मुझे आज देरी नहीं करनी है " सोचने की जगह सोचिये-    " मुझे समय पर पहुचना है ".   " शोर मत करो " के स्थान पर -" कृपया शान्ति बनाये रखे " कहिये।  जितना हम कहेंगे " मत करो" उतना ही दिमाग वही करने जायेग। 
    
                अब हमे यह जानना है कि  ज़िन्दगी में हमारा उद्देश्य क्या है ? अंततः हम चाहते क्या है? वह क्या है जो हमे जादुई चिराग से चाहिए था?  बस  उन्ही उद्देश्यों को एक साफ़ कागज में थोड़े बड़े अक्षरों में लिख लिजिये ( सकारत्मक शैली में) और कमरे में ऐसी जगह लगा लीजिये कि  वह आपको हमेशा दिखाई दे।  फिर उसे कम से कम लगातार २१  दिनों तक खुले मन से इस तरह पढना है जैसे कि  आप कोई प्रार्थना पढते हो , जिस पर आपको १०० % यकीन हो। मन में १००% विश्वास का होना बहुत जरूरी है। १% अविश्वास भी आपके ९९ % विश्वास को खत्म कर देता है। 
आपके सकारत्मक विचार इस प्रकार हो सकते है :-
१) मै  अपने शरीर को हमेशा स्वस्थ्य रखता हूँ। 
२)  मैं दिन-प्रतिदिन तरक्की कर रहा हूँ। 
३) मेरी सोच और मेरी ज़िन्दगी सकारात्मक है। 
४)मेरी समस्या का हल पाने की मुझमे अदभुत  शक्ति है। 
इत्यादि .... 

बस इसे पढना है रोज़ सुबह और शाम, एक प्रार्थना और उपासना की तरह।  बहुत जल्द आप अपनी ज़िन्दगी में चमत्कार होते देखेंगे। 

      हमारी मान्यता ही हमारे जीवन का आधार होती है। हर व्यक्ति को वही काम या पेशा अपनाना चाहिए जो उसके दिल के करीब हो और जिसके करने से उसे ख़ुशी हासिल होती हो और वह उससे दिन के १० -१२  घंटे भी ख़ुशी -ख़ुशी कर सके। क्यूकि  जिस काम को आप ख़ुशी -ख़ुशी करेंगे उस काम में तरक्की अवश्य होगी। 

        हमारी ज़िन्दगी को सही और गलत बनाना भी हमारे ही हाथ में है। अपने पर विश्वास और साथ में बहुत सी मेहनत  सफलता का सूत्र है। ज़िन्दगी में जो कुछ भी होता है उसके पीछे कुदरत की कोई न कोई वजह जरूर होती है और वह वजह हमेशा सही ही होती है। 

   बचपन से दृढ - इच्छाशक्ति  और भगवान पर विश्वास रखना  हमे माता - पिता  ने सिखाया, बहुत सालो तक इसके इसे सही रूप से जीवन में कैसे उतारना  है हमे पता ही नहीं था और हम सोचते रहे की हमारे जीवन में बहुत कठिनाइयाँ है। पर जब आज मुड  कर देखती हूँ तो समझ आता है कि  माँ के जीवन में इतने चमत्कार कैसे हुए?  सबसे बड़ी वजह थी  उनका विश्वास और दृढ़ - इच्छाशक्ति  और हमेशा यह कहना कि -" जो होता है अच्छे के लिए होता है " और " सब ठीक हो जायेगा". और सच में काफी कुछ उनके अनुरूप होता चला गया। तूफ़ान आते है और चले भी जाते  है। 

 "आसान" करेंगे सबकुछ अगले अंक में। 


  

2/26/2013

अलादीन का जादुई चिराग

अलादीन के जादुई चिराग की कहानी तो हम सब ने पढ़ी है और पढने के बाद यही सोचा है कि काश ! के यह चिराग हमारे हाथ लग पाता। हम सभी उस चिराग को पाने की आशा रखते है, भगवन से उसे माँगते  भी होंगे , पर क्या वास्तव में उसे पाना चाहते है ? यदि सचमुच में हम उसे पाना चाहते तो क्या कभी उसे खोजने की कोशिश नहीं करते ? क्या कभी हमने उसे खोजने की कोशिश की है ?  बस  ! चाहिए , मेहनत  नहीं करनी है पाने के लिए। 

    क्या  आपको पता है ? वह जादुई चिराग हम सभी पा सकते है . पहले यह जान लेते है कि  वह जादुई चिराग है क्या- "हमारी हर तमन्ना पूरी करने वाला ". पर आपको यह नहीं पता कि  वह तो मौजूद है , हमारे बीच, हमारे पास ही ,  फिर भी हमे दिखाई क्यों नहीं देता ? क्यूंकि  यह उस हवा की भांति है जो चारो ओर  मौजूद तो है पर दिखाई नहीं देती सिर्फ महसूस की जा सकती है , इसी तरह यह जादू का हम अनुभव ले सकते है, जादू स्वयं उत्पन्न कर सकते है पर देख नहीं सकते। उसे महसूस या उत्पन्न करने के लिए हमे थोड़ी कोशिश जरूर करनी पड़ती है। 
        
      खाने के बारे में तो आपको पता ही है कि  जो हम खाते है उसका हमारे तन और मन पर प्रभाव पड़ता है। पर क्या आपको पता है कि  जिन शब्दों का हम प्रयोग करते है उनका भी हमारे न सिर्फ तन , मन पर प्रभाव पड़ता है बल्कि हमारे जीवन पर भी प्रभाव पड़ता है। इसी तरह हमारी सोच का भी हमारे तन मन और जीवन पर प्रभाव पड़ता है।  सच्चाई यह है की हमारा संपूर्ण जीवन हमारी भाषा में ही निहित है। हमारे मुहँ  से निकले हुए शब्द हवा में हमारे आस-पास ही रहते है हमेशा। कहा जाता है ना ... " काली जुबान है , या बोल हुआ सच हो जाना " इत्यादि इसी का एक भाग है। इसी तरह जैसा हम सोचते है, हमारा शरीर उसी सोच के आधार पर काम करता है। 
       
       जी हाँ ! यह जादुई चिराग है --" हमारी सकारात्मक सोच". जिंदगी का असल जादू है यह। हमारी ज़िन्दगी में वही होता जो सच में, जाने या अनजाने हम चाहते है। दुसरे शब्दों में कहा जाये तो हमारे अवचेतन मन का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सकारात्मक सोच कोई एक दिन का जादू नहीं है और न ही कोई बहुत कठिन प्रक्रिया ! बल्कि यह तो कुछ सरल उपाए है जिन्हें बस हमे अपने रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बनाना है। 

  एक बहुत छोटी सी बात है - हम अक्सर छोटे बच्चो के साथ किस तरह बात करते है ? या उन्हें हिदायते देते है? -- " यह मत करो, वोह मत करो, लग जाएगी,  अरे टूट जायेगा, नही ...." इत्यादि। बच्चा पूरे दिन ज्यादातर क्या सुनता है ? न, नहीं , मत करो ... है ना  ??  सब उसे बताते है क्या नहीं करना है। पर क्या हम कभी इसकी जगह उसे यह बताते है कि  असल में उसके क्या करना चाहिए ?  हम जाने -अनजाने उसे नकारात्मक सोच दे रहे होते है।  इस से उसकी मानसिकता बदलने लगती है, उसे बडा होकर यह तो पता होता है कि क्या नहीं करना है परंतु  करना क्या है वह नहीं पता चलता है।  यही सोच हमारे जीवन में जादू लाने नहीं देती।

           बस इसी सोच को तो बदलना है - यदि हमे पता हो कि  हमे करना क्या है तो फिर कैसे करना  है इसके अनेक रास्ते बन जायेंगे और हमारा पूरा ध्यान एक ही तरफ केन्द्रित होगा। 

         कहा जाता है ना- " जो दूसरो के लिए गढ़ढा  खोदता है, वह स्वयं उसी गढ्ढे में गिरता है। " ठीक उसी तरह जिन शब्दों का प्रयोग हम दूसरो के लिए करते है, वही शब्द हमारे जीवन में प्रभाव डालते है।  इसीलिए कहा गया है कि  -कुछ भी बोलने से पहले हज़ार बार सोचना चाहिए। जब भी बोलो हमेशा अच्छा  ही बोलो। 

               यदि हम अपनी सोच, विचारो और व्यवहार  को सकरात्मक कर दे तो हमारा जीवन भी जादुई चिराग की भांति काम करने लगेगा। 

       अगले अंक में हम जानेंगे कि  आप इस "जादुई चिराग" को अपने जीवन में किस तरह प्रज्वलित कर सकते है। 

   कृपया अपनी प्रतिक्रिया जरूर भेजे।

धन्यवाद।

VAISSHALI S BEHANI 

1/11/2013

Adhunik Thand !!

सर्द है मौसम, चली ठंडी बयार है !

कंपकपाती  ठंडी में,जम  जाती हर बात है !

ठण्ड है इतनी कि ,जम  गए जज़्बात  है !

जम  गया है खून सारा, जम  गए हालात  है !

धुंध छाई  है चारों  ओर ,नैनो में क़ैद  नज़ारे है !

सुनाई न देता कुछ हमे, सन्नाटे यूँ चिल्लाते है !

ठण्ड की यह दहशत देखो,कंपकपाते रिश्ते है !

कल साथ ढूँढते फिरते थे, आज अकेले चाय का लुफ्त उठाते है !!