मानव मन कितना विचलित होता है। वह हर अपनी चीज़ को बहुत पसंद करता है, चाहे फिर वह रिश्ते हो या भौतिक साधन। यहाँ तक कि उसे अपनी पसंद-नापसंद पर ख़ास इख्तियार होता है। इसी तरह हर एक बात पर उसका अपना एक ख़ास नजरिया होता है, जिससे वह अत्यधिक जुड़ जाता है।
हमारे चारो ओर अनगिनत घटनाएँ घटती है। कुछ हमे पसंद आती है और कुछ नापसंद। घटना पर हमारी नज़र पड़ते ही उस विषय में हमारी अपनी एक राय कायम हो जाती है। कुछ घटनाएँ हमारे साथ घटती है तो कुछ हमारे चारो ओर रहने वले हजारो लोगो में से किन्ही के साथ। सभी लोग अपनी नज़र से उसे देखते और तौलते है। किन्तु हर बार हर व्यक्ति अपने नज़रिए को ही सही क्यों मानता है ? क्यों हम दूसरो की ज़िन्दगी के सही/गलत को अपने नज़रिए से क्यूँ तौलते है ? क्या सचमुच यह अधिकार है हमें ?
सच पूछा जाये तो हमें जवान होते अपने बच्चे की ज़िन्दगी से जुड़े फैसले बिना उसकी सहमति से , लेने का भी अधिकार नहीं है। फिर भी हम दुनिया में दूसरे लोग किस तरह की ज़िन्दगी, क्यों बसर कर रहे है , पर सवालिया निशान लगाने का क्या हक है ? जबकि हम न तो उनकी ज़िन्दगी की हर बात को जानते है। बस जो सामने दिखा उस पर अपनी राय बना लेना और उसपर सही/ गलत का फैसला भी खुद कर लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ? बहुत आसान होता है दूसरो को गलत बताना , किसे क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए कैसे करना चाहिए ...इत्यादि पर खुद ही निर्णय ले लेना , पर क्या कभी यह सब करते वक़्त हम सोचते है ? कि किसी पर एक उँगली साधते वक़्त बाकि की तीन उंगलियाँ हमारी ओर ही होती है। हम नौकरी , व्यापार और रोजिंदा के निर्णय जैसे कपडे लेने से शादी तक के लिए दुनिया की सलाह लेने जाते है ? या किसी के विरोध करने पर ( अपनों के सिवाय) अपने निर्णय को बदल लेते है ? नहीं ना ??
पहचान बन चुके चेहरों पर चूँकि उँगली उठाना बहुत सरल है और यह हमारा धर्म बन गया है। क्या सही है क्या गलत है सबको यह बताना हमारी आदत बन गयी है। संस्कृति की दुहाई देने वालो से विनम्र विनंती है कि कृपया जाएँ और हमारी अपनी विशाल संस्कृति का अध्यन करे, उसे अच्छी तरह समझे और फिर निर्णय ले। ऐसा निर्णय जो किसी की आज़ादी में बाधक न बने। हमारी संस्कृति वह नहीं है जो कि १० ० या १ ० ० ० वर्ष पहले पुरुषो द्वारा बनाये कुछ नियम। बल्कि वह तो लाखो करोडों वर्ष पुरानी है। .......
मंथन कीजियेगा ....!!
हमारे चारो ओर अनगिनत घटनाएँ घटती है। कुछ हमे पसंद आती है और कुछ नापसंद। घटना पर हमारी नज़र पड़ते ही उस विषय में हमारी अपनी एक राय कायम हो जाती है। कुछ घटनाएँ हमारे साथ घटती है तो कुछ हमारे चारो ओर रहने वले हजारो लोगो में से किन्ही के साथ। सभी लोग अपनी नज़र से उसे देखते और तौलते है। किन्तु हर बार हर व्यक्ति अपने नज़रिए को ही सही क्यों मानता है ? क्यों हम दूसरो की ज़िन्दगी के सही/गलत को अपने नज़रिए से क्यूँ तौलते है ? क्या सचमुच यह अधिकार है हमें ?
सच पूछा जाये तो हमें जवान होते अपने बच्चे की ज़िन्दगी से जुड़े फैसले बिना उसकी सहमति से , लेने का भी अधिकार नहीं है। फिर भी हम दुनिया में दूसरे लोग किस तरह की ज़िन्दगी, क्यों बसर कर रहे है , पर सवालिया निशान लगाने का क्या हक है ? जबकि हम न तो उनकी ज़िन्दगी की हर बात को जानते है। बस जो सामने दिखा उस पर अपनी राय बना लेना और उसपर सही/ गलत का फैसला भी खुद कर लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ? बहुत आसान होता है दूसरो को गलत बताना , किसे क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए कैसे करना चाहिए ...इत्यादि पर खुद ही निर्णय ले लेना , पर क्या कभी यह सब करते वक़्त हम सोचते है ? कि किसी पर एक उँगली साधते वक़्त बाकि की तीन उंगलियाँ हमारी ओर ही होती है। हम नौकरी , व्यापार और रोजिंदा के निर्णय जैसे कपडे लेने से शादी तक के लिए दुनिया की सलाह लेने जाते है ? या किसी के विरोध करने पर ( अपनों के सिवाय) अपने निर्णय को बदल लेते है ? नहीं ना ??
पहचान बन चुके चेहरों पर चूँकि उँगली उठाना बहुत सरल है और यह हमारा धर्म बन गया है। क्या सही है क्या गलत है सबको यह बताना हमारी आदत बन गयी है। संस्कृति की दुहाई देने वालो से विनम्र विनंती है कि कृपया जाएँ और हमारी अपनी विशाल संस्कृति का अध्यन करे, उसे अच्छी तरह समझे और फिर निर्णय ले। ऐसा निर्णय जो किसी की आज़ादी में बाधक न बने। हमारी संस्कृति वह नहीं है जो कि १० ० या १ ० ० ० वर्ष पहले पुरुषो द्वारा बनाये कुछ नियम। बल्कि वह तो लाखो करोडों वर्ष पुरानी है। .......
मंथन कीजियेगा ....!!
2 comments:
अति उत्तम
Thanks 4 ur valuable comment :)
Encouragement needed
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