7/24/2012

स्वागत करें खुशियों का --


माँ एक ऐसा शब्द है , जहाँ से दुनिया की शुरुआत होती है। वह न सिर्फ बच्चो को जन्म देती है, लालन -पालन करती है, वरन उनकी आँखों में ख्वाब और दुनिया की हकीकत एक साथ दिखाती है, और खुद बच्चो को लेकर हज़ारों सपने बुनती है। उन्ही सपनो में से सबसे बड़ा सपना होता है बच्चो की शादी का, खासकर अपने बेटे की शादी का।

हर एक माँ बेटे की शादी का सपना जिस ललक से देखती है, वही बहु का नाम सामने आते ही हज़ारो  सवालो में खुद को घिरा पाती है। भूल जाती है खुद के बहु होने के समय की विवशता को और याद रह जाता है तो बस अपने अधिकार घर पर और बेटे पर। जहाँ बेटी के लिए ममता और प्यार झलकता है तो वहीँ दूसरे  की बेटी के लिए कठोरता,  अज़ीब  है औरतो  का यह दोहरा स्वरुप और काबिल-ए-तारीफ़ बात तो यह है की वह इन दोनों स्वरूपों को बख़ूबी  निभाती भी है।

                 जब बेटे की शादी कर बहु आती है तो उसका स्वागत बहुत ही जोर-शोरो से किया जाता है, आरती उतारी जाती है, मंगल गीत गाये जाते है, बड़े प्यार से सर पे हाथ रख ढेरो आशीर्वाद दिए जाते है ( यह अलग बात है की अधिकाश आशीर्वाद अपने बेटे या परिवार के लिए ही होते है ). यह सब कुछ ही दिनों में भुला दिया जाता है और माँ, सास बनकर रह जाती है और बहु कर्तव्य निभाने वाली कठपुतली।

            कहा जाता है की सास और बहु की अमूमन नहीं पटती है। जब माँ का ही स्वरुप बदल जाये और बेटी को बदलना पड़े तो पटेगी कैसे? जहाँ माँ और परिवार वाले अपनी बेटी के लिए बड़ा घराना, खुले विचार वाले लोग खोजते है, जहाँ बेटी को राजयोग मिले, काम न करना पड़े (नाजो से जो पली है) , क्या कभी सोचते है कि  जिसे वह  बहु बना कर लाये है वह भी किसी की नाजो से पली लाडली है, उसके भी माँ-पिताजी ने इसी  तरह के सपने देखें होंगे। एक तरफ जहाँ वे चाहते है की उनकी बेटी का उसकी ससुराल में राज़ चले, खुश होते है जब बेटी की हर एक तमन्ना उनका जमाई पूरा करता है वहीँ दूसरी तरफ बेटा करे तो उसे  ' जोरू का गुलाम' कहना नहीं चूकती माँ भी। इतना दुभात  क्यों ?

           बहु से आशा की जाती है कि  वह आकर जल्द ही ससुराल वालो के रंग में रंग जाये और न जाने ऐसी ही कितनी आशाए  राखी जाती है।  हमे बचपन से सिखाया गया है कि 'आशा ही निराशा को जन्म देती है।' पर अपना वक़्त आने पर हम यह सब भूल जाते है।  हम खुद भेद-भाव करते है पर वही बहु करे तो गलत ? खुद को बदलने से साफ़ इनकार और बहु आये तो पूरी बदल जाये। यह कहाँ का इन्साफ है ? फिर कहते है कि -' बहु, बेटी नहीं हो सकती।' हां ! क्यों और कैसे होगी वह आपकी बेटी ? क्या कभी सच्चे दिल सेमन है आपने उससे बेटी ? किया है बेटियों सा व्यवहार ? क्या अपनाया है उसको, उसके अपने वजूद के साथ ?  एक उपनाम( सरनेम) जिसे लेकर वह जन्म लेती है जो उसकी पहचान होता है, वह तक तो उस से छीन  लिया जाता है, घर बदलकर ससुराल हो जाता है ( यह तुम्हारा घर नहीं ससुराल है- कहा जाता है ), सब कुछ तो छिना - छिना  सा लगता है शादी होते ही तो कैसे कोई हो जायेगा अचानक से अपना सा ?  क्या उससे पुछा जाता है कि  -' बेटी तुम क्या चाहती हो ?'  नहीं ! बस बताया जाता है कि  हमारी यह चाहत है और तुम्हे यह करना है।क्यों करे वह आपकी चाहतो को दिल से पूरा जबकि उसकी अपनी चाहतो का गला घोंट दिया गया है।? कैसे कर पायेगी वह पूरा मनन से जबकि उसका मनन अधुरा है।  बड़े अरमानो से लायी जाने वाली बहु से कभी पुछा नहीं जाता की उसके खुद के क्या अरमान है? क्या चाहती है वोह पति से ? सास से क्या अपेक्षाएं  है?

          अब् वक़्त सोचने का नहीं अमल में लाने का है। जिस तरह आप आरती की थाली लेकर बहु का स्वागत करते है बस उसी  रूप में कीजिये अपनी खुशियों का भी स्वागत। नयी नवेली बहु को न सिर्फ अपने घर में वरन अपनी ज़िन्दगी, अपने मन में जगह दीजिये। उससे आते ही बदलने की अपेक्षा न रखते हुए खुद को उस के साथ बदल दीजिये। बहु को  आज़ादी और जगह दीजिये , हुक्म की जगह सलाह लीजिये। नए ज़माने की नयी सोच को अपनाकर न सिर्फ ज़माने के साथ वरन नए ज़माने में अपनी जगह बनाकर रखे।  बहु आपको अपना बनाये इसके लिए जरूरी है की आप उसे खुले दिल से अपनाये। वह माँ जो आज सास है उसे कभी नहीं भूलना चाहिए की वह भी बहार से अर्थात दुसरे परिवार से आई हुई है। जैसे आज यह आपका घर है वैसे ही बहु को महसूस होना चाहिए कि  यह उसका भी घर है।

रिश्तों  और खेती में 1 ही समानता है - " जो आप बोओगे , वही आप काटोगे . " जो यह  बात हमे बचपन में सिखाते है वही बड़े इसे भूल जाते है।   नए सदस्य से आप जैसा व्यवहार करेंगे आने वाले समय में आपको वही वापस मिलेगा और वह भी सूद समेत।   किसी को भी नए माहौल  को अपनाने में वक़्त लगता है उसे यह वक़्त दीजिये, धैर्य  और प्यार के साथ। फिर देखिये किस तरह करती है खुशियाँ आपकी दुनिया रौशन  !!

एक शब्द तुम कहो , चार हम कहें
एक बात पर तुम अडे रहो ,
तो फिर बहस हम भी करें ,
कितना आसान है ना रिश्तो को तोड़ना ,
जो है काम अति मुश्किल वह है जोड़ना ।

वक्त होता नही कभी , निकालना पड़ता है....
थोडा सा ध्यान रिश्तो पे डालना पड़ता है ...

सीचना होता है प्यार से, पर करता कौन है ??
रिश्ते निभाने की बात आजकल सोचता कौन है ???






"अधिकार और कर्तव्य " पर कुछ सवाल अगले अंक में। 


धन्यवाद !!


Vaisshali :)