भारतीय संस्कृति में संगीत का बहुत महत्व है। सदियों से संगीत का कला जगत में अपना एक श्रेष्ठ मक़ाम रहा है। इसे देवकला, राजकला तक कहा गया है। यह कला की श्रेष्ठता का पता इस से चलता है कि हमारे देवता तक इस से जुड़े हैं। सरस्वती जी के हाथों में 'वीणा', तो शंकर जी के हाथों में 'डमरू'. विष्णु जी का शंख और कान्हा की बाँसुरी प्रसिद्ध ही है। यह न सिर्फ देवी-देवताओ की कला है, बल्कि उनको लुभाने का एक तरीका भी है।
इसी परंपरा को राजा-महाराजाओं ने और आगे बढ़ाया। संगीत के कई श्रेत्र हैं- वाद्य यंत्रो का प्रयोग, स्वरों का प्रयोग(गायन), नृत्य इत्यदि संगीत का ही रूप है। संगीत की साधना पूजा के बराबर मानी गयी है। हमारे देश में जहाँ विविध वाद्य-यंत्रो का प्रयोग होता है, वहीँ गायकी के भी बहुत से रूप है। राग-रागिनियों द्वारा परंपरागत गायकी हो या भजन, लोकगीत हो या हमारी फिल्मो का संगीत, सभी का अपना अपना एक स्थान है, जिनका आधार एक ही है। इन सभी में परंपरागत गायकी, लोकगायन और भजन को ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है। यही स्थिति नृत्य के साथ भी है।
जैसे-जैसे वक़्त बदलता रहा, वैसे-वैसे संगीत भी। जहाँ पहले शास्त्रीय संगीत को बहुत अधिक महत्व दिया जाता था, वहीँ धीरे धीरे अर्ध- शास्त्रीय संगीत का प्रचलन बढ़ने लगा। चूँकि शास्त्रीय संगीत समझना जन-साधारण के बस की बात नहीं है। फिर जैसे-जैसे फिल्मो का चलन बढ़ा वैसे ही फिल्मी संगीत ज्यादा पसंद किये जाने लगा।
वक़्त और ज़माने के साथ न सिर्फ भारतीय फिल्मो का रूप बदला बल्कि संगीत में भी बहुत परिवर्तन आये। जहाँ पश्चिमी देशो के प्रति आकर्षण बढ़ा , साथ ही हम उनकी संस्कृति और संगीत भी अपनाने लगे। आधुनिकता सिर्फ कपड़ो से ही नहीं वरन लहज़े , शब्दों और संगीत से भी झलकने लगी। हमारी फिल्मे , हमारे समाज़ का आईना कहीं जाती है, और उसमे बसा संगीत हमारी भावनाओ को उजागर करने का एक स्रोत। आज के दौर में जहाँ हम पश्चिम का अनुसरण कर मधुरता,कानों में मिश्री घोल देने वाले संगीत को छोड़ तेज़ , भड़काऊ, संवेदना विहीन संगीत सुननाने लगे है , वहीं गानों के बोल में भी तेजी से गिरावट आई है। यही चिंता का विषय है।
बात सिर्फ संगीत की होती तो शायद इतना फर्क नहीं पड़ता किन्तु जिस तरह के बोलो का प्रयोग होने लगा है, उस से समाज की गिरती सोच का पता चलता है। साथ ही पसंद करने वालो की सोच का भी। हम जिस तरह का संगीत सुनते है, जिस तरह के गाने गाते है, धीरे-धीरे हमारी सोच भी वही रूप ले लेती है। दिन-प्रतिदिन गानों में गालियों का बढ़ता उपयोग वाकई चिंता का विषय है। हमारी नई पीढ़ी किस ओर जा रही है ? वहां कभी मीठे बोल और मधुर संगीत होता था , प्रेम को इश्क कहकर नवाज़ा जाता था अब वही इश्क 'कमीना' हो गया। ' यारी है ईमान मेरा , यार मेरी ज़िन्दगी', 'तेरे जैसा यार कहाँ,' जैसे दोस्ती को एक मुकाम देने वाले गानों की जगह " हर एक दोस्त कमीना होता है' जैसे फूहड़ गानों ने ले ली है। लडकियाँ भी 'जवानी' की नुमाइश से खुश होकर खुद को 'सेक्सी' कहलाने से परहेज़ नहीं करती। हद तो तब पार हो गयी जब लेखको और गायकों ने गालियों के साथ अति अश्लील गाने प्रस्तुत किये और हमारी आज की पीढ़ी उनको मज़े लेकर न सिर्फ सुनती है बल्कि उन गानों पर थिरककर खुद को 'आधुनिक' और 'कूल' समझने लगी।
जिस तरह न सिर्फ संगीत बल्कि संस्कृति का ह्रास हो रहा है, उसे देखते हुए बार बार ये सवाल ज़ेहन में उठ खड़े होते है कि -" क्या चाहती है आज की पीढ़ी ? कहाँ जा रही है ? दिशाहीन होती नई पीढ़ी के इस रवैये से क्या हश्र होगा उनका?
हम बस समझा सकते है, फिक्र कर सकते है और कुछ नहीं, बाकी के प्रयास तो उन्हें खुद करने होंगे। अपने माप-दंड भी खुद ही तय करने होंगे।