XpReSSioNs
7/28/2025
गांठ लगी डोर
4/13/2021
महिलाओं का स्थान
ये शताब्दी महिलाओं की कही जाती है. अंतरिक्ष तक हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित किया है. आज महिलाएं तेज गति से उन्नति करती प्रतीत होती है, पर क्या यह उतना ही सत्य है? जितना बताया जा रहा है? क्या जो दिख रहा है वह सत्य है? क्या अधिकांश महिलाओं की स्थिति यही है? या सिर्फ कुछ प्रतिशत महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आया है?
बहुत दूर के या बड़े बड़े उदाहरण मैं नहीं दूंगी किन्तु देखा जाए तो अमुक प्रतिशत को छोड़कर कमोबेश महिलाओं की स्थिति में ज्यादा कुछ सुधार नहीं हुआ है.
आपके अपने क्षेत्र में ही देखिए - आस पास कई जातियों के समाज मिलेंगे, माध्यम वर्ग - उच्च वर्ग के क्लब मिलेंगे.. क्या कभी आपने उनके नामों पर गौर किया है..?? 🤔
चाहे जातिगत समाज हो.. दलित, ठाकुर, राजपूत, अग्रवाल, माहेश्वरी, राजस्थानी इत्यादि या फिर लायंस, रोटरी क्लब, या शहर के नामचीन स्पोर्ट्स क्लब इत्यादि हो.. इनमें आप पाएंगे कि महिलाओं का एक अलग भाग होता है और उसका नाम अमूमन फ़लाना Ladies Club - ढ़िकाना ladies club होता है,par कहीं पर भी आपने फ़लाना पुरुष समाज (men's club) नाम सुना है.. नहीं ना.. वो कभी देखने नहीं मिलेगा.. क्योंकि समाज की पहचान पुरुष से ही होती है.. महिलाओं को अपनी पहचान बनानी होती..
अब आप सोचेंगे कि नाम अलग देने से क्या होता है? 🤔
किन्तु पूरे संगठन की कार्यप्रणाली देखे तो हर जगह समानता मिलेगी - Ladies Club या तो विभिन्न रचनात्मक प्रतियोगिताएं कराती है, पिकनिक और ज्यादा हुआ तो थोड़ा बहुत सामाजिक कार्य... बस यही. जबकि जितने भी बड़े निर्णय है समाज को लेकर, उनमें कहीं भी महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं होती - भवन निर्माण का निर्णय से लेकर हर बड़े छोटे कार्यक्रम या समाज के लिए किए गए सुधारात्मक निर्णय, पुरुष सिर्फ अपने हाथ में रखता है.
ऐसा क्यूँ है?? 🤔
मुझे तो ये ladies club की अलग संकल्पना, न कभी समझ आई है न कभी स्वीकार हुई है. शायद इसीलिए समाज की निश्चित चलती धुरी में, मैं कभी अपने को जोड़ नहीं पायी.
यदि दूसरे नजरिए से देखा जाए तो इसमें पुरुष अकेला जिम्मेदार नहीं है - कहीं ना कहीं महिलाएं भी जिम्मेदार है.
सोचा जाए तो क्या महिलाओं ने अपनी क्षमता को उस हद तक बढ़ाया है क्या?
पढ़ लिख कर अपने को नौकरी तक सीमित करके ही खुश हो जाती हैं. क्या कभी घर में अपने पिता, पति, श्वसुर जी के सामने अपनी बात रखी या अपनी प्रतिभा/ इच्छा को जताया है? क्या कभी ये बताने की कोशिश की है कि मुझे इस क्षेत्र का ज्ञान है - मुझे इस चर्चा में शामिल कीजिए..??
पुरुष प्रधान समाज हमारी वास्तविकता रही है. उस समाज में जगह बनाने का प्रयास हमें स्वयं करना होगा. जब कोई अपनी जगह बनाने का प्रयास करता है तो लोग या टीम को नहीं बल्कि सिर्फ उस व्यक्ति को अपनी प्रतिभा न सिर्फ दिखानी होती है बल्कि अपने को उस लायक खरा जताने के लिए कई परीक्षाओं से गुजरना होता है - सिर्फ बोलने से कुछ नहीं मिलता है. यदि राजा का पुत्र अपनी योग्यता साबित नहीं करता तो वो भी राजगद्दी का अधिकारी नहीं होता है.
सिर्फ महिला सशक्तीकरण का झंडा उठाकर चल देने से कुछ नहीं होगा बल्कि साबित करना होगा कि उस झंडे को उठाकर चलने की क्षमता है हम में...!!
© ® Vaisshali
10/4/2021..
8/21/2020
संतान का जन्म : फ़र्ज़ या क़र्ज़
माता- जन्मदायिनी और पिता- जन्मदाता कहलाते है।
हर माता-पिता बहुत ही हर्ष व अकांक्षाओ के साथ अपनी संतान को जन्म देते है। बहुत प्रेम के साथ संतान का लालन-पालन करते है। इस तरह जो भी इस संसार में जन्म लेते है वह अपनी मर्ज़ी से नहीं वरन अपने माता-पिता की इच्छा का परिणाम होते है। जिसे माता-पिता अपनी मर्ज़ी से,अपने हिसाब से,अपनी ख़ुशी के लिए इस संसार में लाते है ! उनके लालन -पालन में सिर्फ प्रेम नहीं होता, साथ होती है उनकी आकांक्षाएँ , महत्वाकांक्षाएँ, अधिकार और संतान के कर्तव्य।( यह अधिकार व् कर्तव्य अलिखित है, बरसो से बस माने हुए है, अतः अधिकांशतः एकतरफा से है।) सोचने वाली बात यह है कि जो काम हम अपनी ख़ुशी से ख़ुशी के लिए करते हो तो उस काम पर आपका कोई क़र्ज़ होगा? संतान के जन्म के बाद उनसा लालन-पालन करना माता-पिता का नैतिक फ़र्ज़ है/ कर्तव्य है। कहा जाता है की माता-पिता सा कोई निःस्वार्थी नही इस संसार में , किन्तु गहराई से समझी जाये तो असत्य सी प्रतीत होगी। दूसरे शब्दों में वे अत्यंत स्वार्थी से प्रतीत होंगे।
अधिकांशतः संतान को जन्म देने के पीछे भी बहुत से कारण होते है। सिर्फ ख़ुशी के लिए उनका जन्म नहीं होता। अपना व परिवार का नाम चलने वाला/वाली कोई होना चाहिए , कारोबार को सम्हालने या आगे बढ़ने के लिए......... इत्यादि। जब संतान को जन्म देने के पीछे खुद का कोई कारण हो तो उन्हें निःस्वार्थी कैसे कहा जाये ....... ?? इतना ही नहीं जब संतान को बड़ा किया जाता है तब उसे माता-पिता के प्रति कर्तव्य सिखाया जाता है और आशा की जाती है की वह उन कर्तव्यों पर खरा भी उतरे। साथ ही साथ हर माता-पिता अपनी संतान को अपनी आकांक्षाओ और महत्वाकांक्षाओ को पूरा करने का जरिया भी मान बैठते है। तो क्या यह भी निस्वार्थता की निशानी है?
भारत एक ऐसा देश है जहाँ बच्चों को क्या 'नहीं' करना यह तो अच्छे से और बार-बार सिखाया जाता है परन्तु क्या करना चाहिए सही मायनो में , इस पर कम ध्यान दिया जाता है। माता-पिता अपनी संतान का सही ढंग से लालन-पालन करके अपना फ़र्ज़ बहुत अच्छे से निर्वाह करते है पर क्या कभी वह यह सोचते है कि उनका यह फ़र्ज़ उनकी अपनी संतान के लिए क़र्ज़ में बदल रहा है। जीवन में बच्चा एक बार तो जरूर यह सोचता होगा कि क्या हमारा जन्म सिर्फ कर्तव्य पूर्ति के लिए हुआ है? क्यूँ भूल जाते है माता-पिता, कि जन्म तो उन्होंने अपनी मर्ज़ी से दिया है परन्तु उनका फ़र्ज़ सिर्फ संतान के आत्मनिर्भर होने तक है, आगे की ज़िन्दगी के लिए संतान खुद जिम्मेदार है। जब आपने जिम्मेदार बनाया है तो जिम्मेदारी निभाने तो दीजिये पूरी तौर पर। बचपन से जिस तरह के माहौल और घर के अन्दर के वातावरण में बच्चा बड़ा होगा उसके स्वाभाव में वही झलकेगा और अपनों के प्रति उसका व्यवहार भी उसी अनुकूल होगा।
माता-पिता का फ़र्ज़ बच्चो के लिए क़र्ज़ क्यों बने ? कहीं ऐसा तो नहीं चूँकि आप इस संसार में लाये है तो 'ता-उम्र' उन्हें आपके ही अनुकूल चलना होगा? क्यूँ? माता-पिता की आकांक्षाओ का भार बच्चा क्यों उठाएँ ? सिर्फ इसलिये कि आप उसके जन्म के जिम्मेदार है या परंपरा ही यही चली आ रही है? अक्सर सुनने में आता है कि -" तुम्हे पाल-पोसकर क्या इसलिये बड़ा किया है......??" तो किस लिए किया है? अर्थात पाला-पोसा किसी कारण से है, निःस्वार्थ नहीं पला गया है।
हमारे देश में जहाँ रिश्ते फ़र्ज़ कम क़र्ज़ ज्यादा जैसे होते है जिन्हें आपको निभाना ही होता है, समाज का भी बहुत दबाव होता है, वहीँ पश्चिमी देशो में माता-पिता की जिम्मेदारी, संतान के अपने आत्मनिर्भर हो जाने की उम्र तक ही होती है। सही मायनो में फ़र्ज़ अदायगी वहीँ निभाई जाती है। भारत में न सिर्फ अपनी संतान बल्कि दूसरे की संतान, जो आपकी संतान की साथी है, उस से भी आकांक्षा राखी जाती है कि उसका, आपके प्रति भी फ़र्ज़ है। यह कहाँ तक तर्कसंगत है? माता-पिता के प्रति फ़र्ज़ ( क़र्ज़) समझ भी आता है किन्तु साथी के माता-पिता के प्रति क़र्ज़ (फ़र्ज़ ) क्यों।..??
नैतिकता , मानवता, और प्रेम को अलग रख कर सोचा जाये तो इस संसार में कोई भी व्यक्ति किसी के भी प्रति बाध्य नहीं है। सामाजिक रूप से हमारा फ़र्ज़ क्या हो वह हमें खुद तय करना चाहिए। कितनी अजीब बात है कि हमे बचपन से समाज, माता-पिता, भाई-बहन इत्यादि के प्रति क्या फ़र्ज़ है, बार बार समझाया और सिखाया जाता है , वहीँ हमारा देश के प्रति, देश के कानून के प्रति और देश से जो पाया है उसे लौटने के प्रति क्या फ़र्ज़ है? इत्यादि अति महत्वपूर्ण बातों को गौण समझा जाता है, इस बारे में सिखाने या समझाने की जरुरत समझी ही नहीं जाती।
संतान माता-पिता की परछाई हो सकता है किन्तु कर्ज़दार नहीं। फ़र्ज़- प्रेम ,लगाव, अपनापन, रिश्ते, नैतिकता, मानवता के दायरे में आकर निभाए जा सकते है किन्तु वह संतान के लिए क़र्ज़ रुपी नहीं हो सकते कि उन्हें मजबूरन निभाना ही पड़े। संतान आकांक्षा और महत्वाकांक्षा पूरी करने वाली मशीन नहीं, उसकी अपनी सोच और समझ और इच्छाएँ है, यह हमे अब सीख लेना चाहिए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी जरूर है किन्तु समाज मनुष्यों से बना है, न कि मनुष्य समाज से , यह कभी नहीं भूलना चाहिए। (फ़र्ज़- एक नैतिक जिम्मेदारी है तो वहीँ क़र्ज़- मांग कर , वापस करने के इरादे के साथ लिया जाता है।)
संतान के आत्मनिर्भर होने के साथ ही माता-पिता का फ़र्ज़ बच्चो के प्रति समाप्त हो जाता है। आगे संतान अपनी ज़िन्दगी और अपने परिवार के प्रति खुद जिम्मेदार होता है। संतान के परिवार ( पत्नी-बच्चो ) के प्रति माता-पिता की कोई जिम्मेदारी नहीं होती। इसलिए उनसे इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। हर माता-पिता का फ़र्ज़ सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान के प्रति होता है।
फ़र्ज़ और क़र्ज़ की इस कश्मकश में हर इंसान फसाँ हुआ है, अंतत : जीत, उसकी बचपन से की गयी परवरिश, उसकी अपनी सोच और माहौल की, होती है। माता-पिता के प्रति आपके फ़र्ज़ को आपको किस तरह निभाना है वह प्रत्येक इंसान को स्वयं समझना होगा। किसी क़र्ज़ की तरह या माता-पिता के प्रति असीम प्रेम , लगाव और उनके प्रति नैतिक जिम्मेदारी की तरह ? माता-पिता को भी बच्चो को प्यार और सिर्फ प्यार देकर , एक अलग व्यक्तित्व की तरह बड़ा करना चाहिए न कि अपनी संतान होने के कारण स्वार्थ की सोच के साथ।
** यह सोच पूर्णतः लेखिका की अपनी है, इस विषय पर आपके विचारो का स्वागत है, कृपया अपने विचार जरूर भेजे।**
9/14/2016
मंदोदरी
विवाह उसका हुआ था
एक राजपुत्र से
गुणी -गुणवान से
विद्वान से
दस कलाओं में
पारंगत कलाकार से
संस्कृत के पंडित्य से
एक बड़े शिव भक्त से
रहती राजमहल में थी
स्वर्ण की खान में
रश्क करती सहेलियाँ
किस्मत पर उसकी
भरा पूरा परिवार था
ननद देवर का प्यार था
बच्चे आज्ञाकारी थे
वीर-गुणों की खान थे
खुश सदा रहती थी
फिर वो मुरझाने लगी
अश्कों को बहाने लगी
मिन्नतें पति से की हज़ारो
वो बात उसकी ठुकराने लगा
अभिमान में छाने लगा
वो विनाष को पहचान गयी
समझाने लगी सहम गयी
मौत से डरती न थी
बात बस इतनी सी थी
सर्वनाश हो जायेगा
नाम पुरखों का मिट जायेगा
किन्तु हृदय रो रहा था
नारी मन विचलित जो था
ऊपर से मुस्काती थी
घाव दिलो के न दिखाती थी
पल पल वो टूट रही थी
सिसकाती थी मुस्काती थी
जानती थी मर्यादा को
उसके स्वाभिमान की आभा को
सौतन से गुरेज़ न था
पर,
पर-स्त्री से परहेज़ था
दुखी मन हुआ जा रहा
काबू में कुछ न आ रहा
पति समझने राजी न था
कुछ भी बेचारी के हाथ न था
कैसे बचाती मर्यादा
परिवार की गिरती आभा
सबकुछ सह सकती है
पति चरित्र पर लगे
प्रश्न को
कैसे सह पायेगी ?
भरे नैनों से मुस्काती
कभी रूठती
कभी मनाती
कभी कोप भवन
में जा बैठती
सबकुछ करके
हार रही थी
एक स्त्री होकर
दूजी स्त्री के
स्वाभिमान को
बाँट रही थी
उस पर-नारी का
दुःख जगत को दिखा
इस मंदोदरी की तड़प का
किसी को एहसास न था
सोचो -
क्या गुजरती होगी
जब पति चले
विनाश राह पर
परिवार डूबा जाए
गहरे गर्त में
बेटे को भी
समझ न आये
वो पिता के संग
कदम मिलाए
पत्नी फिर भी रह लेगी
माता कैसे सह पायेगी ?
गलत राह पर चले पुत्र को
कैसे सही राह दिखाएगी ?
एक सती के सतित्व को
वो कैसे बचा पाएगी ?
यह कलंक जो लग जाएगा
इतिहास मिटा नहीं पाएगा
रावण का मोल भविष्य में
दो कौड़ी का रह जाएगा
साथ रावण के उसका भी
वजूद मिट के रह जाएगा
कोई पिता अपनी पुत्री का
नाम मंदोदरी न रख पाएगा
कही उसे भी न मिले रावण
यह डर फन फैलाएगा ....
उसकी सारी कोशिशें
गर्त में चली गयी
बचा सकी न नाम
सिमट के वो रह गयी
खुद रूपवान
पति गुणवान
बस एक कलंक ने
किया वो काम
धो दिए अच्छे कर्म सारे
ज़माना सारा ताना मारे
किस किस को वो समझाए
व्यथा अपनी कैसे सुनाए
कौन समझेगा
पति का वृतांत
उसके पास नहीं कोई उपाय
राम तो ठहरे मर्यादा पुरुषोत्तम
वो कैसे किसी को मारते ?
फिर रावण को मोक्ष मिलता कैसे ?
फिर कैसे वो रावण को तारते ?
सूझा न उसको कोई उपाय
मरना उसको राम से ही था
कोई समझा नहीं इस बात को
मतलब उसको मोक्ष से ही था
जो होती सीता की कामना
रखता उसको महलों में
यूँ न रखता बना पर्णकुटी
खुली अशोक वाटिका में
रहती मंदोदरी की सेवा में
देता सारे वैभव उसे
करती न कंद मूल कलेवा
दासियों का रहता रेला
कैसे खोज पाते हनुमान ?
देख न पाते राजा राम
चार दीवारी महलों की
कलंकित करती सीता को
दाग न मिटा पाती फिर भी
लेती सौ अग्नि परीक्षा वो
किसी ने यह पक्ष न सोचा होगा
सिर्फ रावण को कोसा होगा
रावण का यह रूप
कौन जान पाएगा ?
मंदोदरी की यह व्यथा
कौन समझ पाएगा ?
रावण का कसूर था इतना
सीता को हाथ लगाया था
चाहा मोक्ष उसने राम से
फिर ये स्वांग रचाया था
सिर्फ मोक्ष की खातिर
परिवार दांव पे लगाया था
आज भी रावण जलता है
मोक्ष कहाँ उसे मिलता है ?
सबकुछ खोकर भी
सिर्फ उसने बदनामी पायी
चाह कर भी मन्दोदरी
खुद विभीषण न बन पायी
अपने पति को कर कोशिश भी
चरित्र हनन से न बचा पायी
वो भी एक स्त्री थी
यह कोई क्यों न समझ पाया
पतिव्रता थी क्या करती
कोई उपाय न उसे आया
कैसे देखा होगा उसने
बिखरते अपने घर को
कैसे ज़ब्त किया होगा
जब ,
देखा होगा बेटे की मृतदेह को
रोकर लड़ कर ,खोकर भी
सिंदूर की लाज
न बचा पायी
आज भी दर्द सहती है
नफरतों में ज़िंदा रहती है
दुष्कर्म कहाँ दफ़न होते हैं
इतिहास में ज़िंदा रहते हैं
गुण का मूल्य कहाँ
एक अवगुण काफी है
सीता और मंदोदरी
के दुःख में
यही अंतर बाकी है
दोनों ने पाया दुःख
अपने पति की खातिर
एक सबकुछ जीत गयी
एक हार गयी सबकुछ पाकर
क्या सीता ने जाना होगा ?
मंदोदरी की व्यथा को
उसकी मजबूरी को
उसके दिल में उठते दर्द को ?
पति धर्म खूब निभाया दोनों ने
पाकर भी न पाया सीता ने
राम का साथ ,
मंदोदरी ने पाया राज्य
ले हाथों में विभीषण का हाथ
फिर भी उसका दुःख
कोई समझ न पाएगा
उसके दामन का दाग
कभी न धुल पाएगा
कभी न धुल पाएगा ..... !!
वैशाली
9/8/16
5.45 am.
6/29/2016
बेवफ़ाई
करके बेवफाई भी तू खुश रहे
हर गम हर जुदाई में तू खुश रहे
रब न दे तुझे कोई सज़ा
मेरी मौत के दिन भी तू खुश रहे ....
मेरे आँसू तेरी मुस्कान बन जाए
कोई मिले और तेरी जान बन जाए
मेरे टूटे ख़्वाबों से तेरी ज़िन्दगी बन जाए
मेरी यादों के निशां न तेरी परछाई बन जाए ....
मैं तन्हा ही सही ,
तेरी ज़िन्दगी मेला बन जाए
मेरा साथ छूटा सही
तुझे साथ दूजा मिल जाए
मेरे वादे अधूरे सही
तेरे वादों को पंख मिल जाए
मेरे जख्म नासूर सही
तेरे जख्मों को मरहम मिल जाए ....
तुझसे मिली मुझे बेवफ़ाई तो क्या ?
मिले न सिला तुझे तेरी बेवफाई का ....
जा देती हूँ दुआ मैं , तुझे इस जहां में
बे-पनाह मोहब्बत मिल जाए ....
बे-पनाह मोहब्बत मिल जाए .... !!
वैशाली एस बियाणी
4 / 8 / 2016
14 . 0 1
6/09/2016
एकला चलो रे
"एकला चलो रे"
बहुत ही सार्थक पंक्ति है...
जीवन में हम अकेले ही आए हैं और जाना भी भी अकेले ही है.. कुछ समय जीवन गुजराने के बाद महसूस होता है कि हम जी भी अकेले ही रहे हैं. ऊपरी तौर पर शायद कुछ लोग हमारे साथ दिखाई देते हैं किन्तु अंदरूनी तौर पर गहराई से देखे तो हम अकेले ही है. साथ देने वाले लोग सिर्फ वक्ति है.. वक्त आने पर, वक्त रहने पर.. इत्यादि.
कहते है - खून का रिश्ता सबसे मजबूत होता है, पर देखा जाए तो यही सबसे कमजोर होता है क्योंकि यही टूटता है सबसे पहले. स्वार्थ से भरे होते हैं ये रिश्ते... कोई भी रिश्ता एक नाम देने भर से कमजोर हो जाता है, उसमें तेरा मेरा और अन्य बहुत सी बातें बीच आ जाती हैं. अपना इस दुनिया में कोइ नही होता है.
'हम स्वयं अपने लिए ही हो जाए वो भी बडी बात है.. '
किन्तु क्या हम इस सच को स्वीकार कर पाते हैं ??
आज के जमाने का सोशल मीडिया सच में बहुत अच्छी बात है, कम से कम आप अपनी भावनाओ को दिल खोलकर जाहिर कर सकते हैं. कोई तो होगा जो देखेगा, पढेगा.. वर्ना कौन सुनना चाहता है आपके विचारो को ?? और हम कहे भी तो किससे? आपका या आपकी बात का बिना आकलन किये या उस पर अपने विचार व्यक्त किए, कौन सुनेगा? यहाँ तो हर बात पर लोग, बात के पीछे क्या कारण होगा, उसमे ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. हर बात चीर - फाड़ कर देखा जाता है, कुछ और मायने निकाल कर बात का बतंगड़ बनाया जाता है..
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है - हमने बचपन से यही पढा, सीखा और जीया है. ऐसे में अकेला चलना कहाँ तक मुमकिन हो पाएगा ? आज के दौर में अकेले रहने से मतलब क्या सचमुच पूर्णतः अकेले रहना है या मतलब परस्त हो कर जीने से है? या खुद को वक्ति बना लेने से है ?
"अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता "
दोनो ही बातें सही है किन्तु विरोधाभास उत्पन्न करती हैं.
" चाहती हूँ अकेली रहना
पर कोई रहने नही देता !
कभी यादें चली आती हैं
कभी कोई आवाज है देता !!
मानतीं हूँ, अकेली हूँ
नितांत अकेली
जानती हूँ
नही है कोई
वाहिद सहारा मेरा
पूर्णता अपूर्णता के
मंझधार में
गोते लगा रही हूँ..
आज इसको, कल उसको
पुकारती जा रही हूँ
न जाने क्यूँ बस
जिये जा रही हूँ..
जिये जा रही हूँ... "
मेरे विचारों पर सहमत /असहमत होने का पूर्ण हक है आपको, किंतु कृपया एक बार judgemental हुए बिना, मेरे लेखन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें, मुझे खुशी होगी !!
आभार
वैशाली
9/6 /16
11.30 am
5/02/2016
बदलते चेहरे
वक्त को देख बदलते हैं
स्वार्थ की खातिर वो,
अपनो को भी ठगते है !
सही गलत का भेद कहां
खुद को सच समझते हैं
स्वार्थ की खातिर वो,
सारे रिश्ते बुनते है....!!
बेवकूफ़ो की जमात के
संवेदना का दम भरते हैं,
समानता के लिए अब
हम ईश्वर का रूख करते हैं..
मिले वहाँ से न्याय हमें
आस्था इस पर रखते हैं
इसी विश्वास पर हम
हाथ जोड़ नमन करते हैं....!!
नए अनुभव से शिक्षित..
वैशाली
30/04/2016
6.55 pm
4/23/2016
वो बेटी
पक्षपात हो ही जाता है
दो-चार बच्चों के बीच
एक कुछ ज्यादा भाता है !
सबसे ऊंचा ओहदा पाता है
बेटियों के बीच भी अक्सर
ऊंच - नीच का होता नाता है !
नीचे से सब साफ नजर आता है !
कहाँ वो निकल पाती हैं??
वो बेटी तो बेचारी
खून का घूंट पीकर रह जाती है !
सज़ा है बन जाती
भर्रायी सी आवाज में,
अश्क दबा जाती है.. !
उसको परेशान कर जाती
चार लोगों के बीच फिर भी
वो मज़ाक बनायी जाती है
कर दरकिनार उसको
सबकी मौज हो जाती है !
वो मन अपना पाती है
मौन खडे़ माँ-बाप को देख
दिल टूटता, आँखें सूखी जाती हैं !
वो बेटी फिर भी मुस्काती है
वो बेटी फिर भी मुस्काती है... !!
23/04/2016
शाम.. ४.००
11/28/2015
पलायनवादी
अहं की दीवारों के बीच रह गई
टीसती है मुझे हार खुद की
बस ...
बिन आवाज़ रोते सीत्कारते रह गई
मालूम था मुझे हूँ पलायनवादी मैं
क्या तुम्हारा जाताना जरूरी था ?
थोड़ी बहुत इज़्ज़त थी खुद की
खुद की नज़र से गिराना जरूरी था ??
टूटते ही आज शान की दीवार
मैं भी टूट गई हूँ
जुड़ सकूगीं फिर न मैं कभी
इतनी बिखर गई हूँ
डूब जाऊँगी इन अंधेरों में कही
कोई किरण की आस भी नही
आज स्वीकार करती हूँ मैं
हाँ ! पलायनवादी हूँ,कोई वीर लड़ाक नही
जानती हूँ न हो सकूगीं सफल कभी
इसीलिए लौट रही वापस अभी
न करुँगी अब उजालों की तलाश
अँधेरों में बीतेंगे बाकी के दिन सभी
न कोई दिलासा न उम्मीद काम आएगी
दिन रात बस अब यूँही गुजर जाएगी
मुझे बस अब इसी तरह जीना है
पल पल अब आँसुओ को पीना है
हर उम्मीद पर धोखा खायी हूँ
अपनों से बस खंजर ही पाई हूँ
अब मेरा जीना थोड़ा आसान हो जायेगा
अपना है ही नहीं , जो बे-ईमान हो जायेगा
अपने दर्द से फुर्सत है ही कहाँ
जो औरो के नश्तर वार कर जाएंगे
बहुत चढ़ ली चढ़ाई मैंने
अब ज़िन्दगी ढ़लान पर है
बस उतरते जाना है
अनंत में खो जाना है !!
VAISSHALI .......
25/11/2015
3.30 noon
असफल
न जाने कहाँ से कहाँ तक आ गए
दर दर भटकते रहे, किनारों की तलाश में
मारे मारे फिरे .....
सब कुछ लुटा , खाली हाथ वापस आ गए
कभी इस राह , कभी उस राह
हर राह में मंजिल तलाशी
बस अहं बढ़ता गया और
बढ़ती गई अंदरूनी ख़ामोशी
कमज़ोर नीव पर
कब इमारत बनती है ??
दर दर भटकने से
कब मंजिल मिलती है ??
पता न था सब पीछे से मुस्काएँगे
बेमतलब कंकर को पहाड़ बताएँगे
जब चलोगे नयी राह खोजने
वे ही चौराहे पर भटकाएँगे
उठाएँगे उंगलियाँ तुम्हारी ओर
हर इलज़ाम होगा तुम्हारे सर
न जाने क्या क्या उपमाएँ मिलेंगी
अंत में सिर्फ 'असफल 'कहलाओगे !!
VAISSHALI......
25/11/2015
1.30 NOON