11/28/2015

असफल

सपने देख उसे पाने की चाह  में
न जाने कहाँ से कहाँ तक आ गए
दर दर भटकते रहे, किनारों की तलाश में
मारे मारे फिरे  .....
सब कुछ लुटा , खाली  हाथ वापस आ गए
कभी इस राह , कभी उस राह
हर राह में मंजिल तलाशी
बस अहं बढ़ता गया और
बढ़ती गई अंदरूनी ख़ामोशी
कमज़ोर नीव पर
कब इमारत  बनती है ??
दर दर भटकने से
कब मंजिल मिलती है ??
पता न था सब पीछे से मुस्काएँगे
बेमतलब कंकर को पहाड़ बताएँगे
जब चलोगे नयी राह खोजने
वे ही चौराहे पर भटकाएँगे
उठाएँगे उंगलियाँ तुम्हारी ओर
हर इलज़ाम होगा तुम्हारे सर
न जाने क्या क्या उपमाएँ मिलेंगी
अंत में सिर्फ 'असफल 'कहलाओगे  !!

VAISSHALI......
25/11/2015
1.30 NOON


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