9/14/2016

मंदोदरी

मंदोदरी  -मेरी नज़र से 

विवाह उसका हुआ था 
एक राजपुत्र से 
गुणी -गुणवान से 
विद्वान से 
दस कलाओं में 
पारंगत कलाकार से 
संस्कृत के पंडित्य  से 
एक बड़े शिव भक्त से 
रहती राजमहल में थी 
स्वर्ण की खान में 
रश्क करती सहेलियाँ 
किस्मत पर उसकी 
भरा पूरा परिवार था 
ननद देवर का प्यार था 
बच्चे आज्ञाकारी थे 
वीर-गुणों की खान थे 
खुश सदा रहती थी 
फिर वो मुरझाने लगी 
अश्कों को बहाने लगी 
मिन्नतें पति से की हज़ारो 
वो बात उसकी ठुकराने लगा 
अभिमान में छाने लगा 
वो विनाष को पहचान गयी 
समझाने लगी सहम गयी 
मौत से डरती न थी 
बात बस इतनी सी थी 
सर्वनाश हो जायेगा 
नाम पुरखों का मिट जायेगा 
किन्तु हृदय रो रहा था 
नारी मन विचलित जो था 
ऊपर से मुस्काती थी 
घाव दिलो के न दिखाती थी 
पल पल वो टूट रही थी 
सिसकाती थी मुस्काती थी 
जानती थी मर्यादा को 
उसके स्वाभिमान की आभा को 
सौतन से गुरेज़ न था 
पर,
पर-स्त्री से परहेज़ था 
दुखी मन हुआ जा रहा 
काबू में कुछ न आ रहा 
पति समझने राजी न था 
कुछ भी बेचारी के हाथ न था 
कैसे बचाती मर्यादा 
परिवार की गिरती आभा 
सबकुछ सह सकती है 
पति चरित्र पर लगे 
प्रश्न को 
कैसे सह पायेगी  ?
भरे नैनों से मुस्काती 
कभी रूठती 
कभी मनाती 
कभी कोप भवन 
में जा बैठती 
सबकुछ करके 
हार रही थी 
एक स्त्री होकर 
दूजी स्त्री के 
स्वाभिमान को 
बाँट रही थी 
उस पर-नारी का 
दुःख जगत को दिखा 
इस मंदोदरी की तड़प का 
किसी को एहसास न था 
सोचो -
क्या गुजरती होगी 
जब पति चले 
विनाश राह पर 
परिवार डूबा जाए 
गहरे गर्त में 
बेटे  को भी 
समझ न आये 
वो पिता के संग 
कदम मिलाए 
पत्नी फिर भी रह लेगी 
माता कैसे सह  पायेगी ?
गलत राह पर चले पुत्र को 
कैसे सही राह दिखाएगी ?
एक सती के सतित्व को 
वो कैसे बचा पाएगी ? 
यह कलंक जो लग जाएगा 
इतिहास  मिटा नहीं पाएगा 
रावण का मोल भविष्य में 
दो कौड़ी का रह जाएगा
साथ रावण के उसका भी
वजूद मिट के रह जाएगा
कोई पिता अपनी पुत्री का
नाम मंदोदरी न रख पाएगा
कही उसे भी न मिले रावण
यह डर फन फैलाएगा   ....
उसकी सारी कोशिशें
गर्त में चली गयी
बचा सकी न नाम
सिमट के वो रह गयी
खुद रूपवान
पति गुणवान
बस एक कलंक ने
किया वो काम
धो दिए अच्छे कर्म सारे
ज़माना सारा ताना मारे
किस किस को वो समझाए
व्यथा अपनी कैसे सुनाए
कौन समझेगा
पति का वृतांत
उसके पास नहीं कोई उपाय
राम तो ठहरे मर्यादा पुरुषोत्तम
वो कैसे किसी को मारते ?
फिर रावण को मोक्ष मिलता कैसे ?
फिर कैसे वो रावण को तारते ?
सूझा न उसको कोई उपाय
मरना उसको राम से ही था
कोई समझा नहीं इस बात को
मतलब उसको मोक्ष से ही था
जो होती सीता की कामना
रखता उसको महलों  में
यूँ न रखता बना पर्णकुटी
खुली अशोक वाटिका में
रहती मंदोदरी की सेवा में
देता सारे वैभव उसे
करती न कंद मूल कलेवा
दासियों  का रहता रेला
कैसे खोज पाते  हनुमान ?
देख न पाते राजा राम
चार दीवारी महलों  की
कलंकित करती सीता को
दाग न मिटा पाती फिर भी
लेती सौ अग्नि परीक्षा वो
किसी ने यह पक्ष न सोचा होगा
सिर्फ रावण को कोसा  होगा
रावण का यह रूप
कौन जान पाएगा  ?
मंदोदरी की यह व्यथा
कौन समझ पाएगा  ?
रावण का कसूर था इतना
सीता को हाथ लगाया था
चाहा मोक्ष उसने राम से
फिर ये स्वांग रचाया था
सिर्फ मोक्ष की खातिर
परिवार दांव पे लगाया था
आज भी रावण जलता है
मोक्ष कहाँ  उसे मिलता है ?
सबकुछ खोकर भी
सिर्फ उसने बदनामी पायी
चाह  कर भी मन्दोदरी
खुद विभीषण न बन पायी
अपने पति को कर कोशिश भी
चरित्र हनन से न बचा पायी
वो भी एक स्त्री थी
यह कोई क्यों न समझ पाया
पतिव्रता थी क्या करती
कोई उपाय न उसे आया
कैसे देखा होगा उसने
बिखरते अपने घर को
कैसे ज़ब्त किया  होगा
जब ,
देखा होगा बेटे की मृतदेह को
रोकर लड़ कर ,खोकर भी
सिंदूर की लाज
न बचा पायी
आज भी दर्द सहती है
नफरतों  में ज़िंदा रहती है
दुष्कर्म कहाँ दफ़न होते हैं
इतिहास में ज़िंदा रहते हैं
गुण  का मूल्य कहाँ
एक अवगुण  काफी है
सीता और मंदोदरी
के दुःख में
यही अंतर बाकी  है
दोनों ने पाया दुःख
अपने पति की खातिर
एक सबकुछ जीत गयी
एक हार  गयी सबकुछ पाकर
क्या सीता ने जाना होगा ?
मंदोदरी की व्यथा को
उसकी मजबूरी को
उसके दिल में उठते दर्द को ?
पति धर्म खूब निभाया दोनों ने
पाकर भी न पाया सीता ने
राम का साथ ,
मंदोदरी ने पाया राज्य
ले हाथों  में विभीषण का हाथ
फिर भी उसका दुःख
कोई समझ न पाएगा
उसके दामन का दाग
कभी न धुल  पाएगा 

कभी न धुल  पाएगा  ..... !!

वैशाली 
9/8/16
5.45 am.















6/29/2016

बेवफ़ाई

  

करके बेवफाई भी तू खुश रहे
हर गम हर जुदाई में तू खुश रहे
रब न दे तुझे कोई सज़ा
मेरी मौत के दिन भी तू खुश रहे ....

मेरे आँसू  तेरी मुस्कान बन जाए
कोई मिले और तेरी जान बन जाए
मेरे टूटे ख़्वाबों से तेरी ज़िन्दगी बन जाए
मेरी यादों के निशां न तेरी परछाई बन जाए 
....

मैं तन्हा  ही सही ,
   तेरी ज़िन्दगी मेला बन जाए
मेरा साथ छूटा सही
   तुझे साथ दूजा मिल जाए
मेरे वादे अधूरे सही
  तेरे वादों को पंख मिल जाए
मेरे जख्म नासूर सही
   तेरे जख्मों  को मरहम मिल जाए 
....

तुझसे मिली मुझे बेवफ़ाई  तो क्या ?
मिले न सिला तुझे तेरी बेवफाई का 
....
जा देती हूँ दुआ मैं , तुझे इस जहां में
बे-पनाह मोहब्बत मिल जाए  
....
 
बे-पनाह मोहब्बत मिल जाए  .... !!

वैशाली एस बियाणी 

4 / 8 / 2016
14 . 0 1 

6/09/2016

एकला चलो रे

"एकला चलो रे"
"एकला चलो रे"

बहुत ही सार्थक पंक्ति है...

जीवन में हम अकेले ही आए हैं और जाना भी भी अकेले ही है.. कुछ समय जीवन गुजराने के बाद महसूस होता है कि हम जी भी अकेले ही रहे हैं.  ऊपरी तौर पर शायद कुछ लोग हमारे साथ दिखाई देते हैं किन्तु अंदरूनी तौर पर गहराई से देखे तो हम अकेले ही है. साथ देने वाले लोग सिर्फ वक्ति है.. वक्त आने पर, वक्त रहने पर.. इत्यादि.
       कहते है - खून का रिश्ता सबसे मजबूत होता है, पर देखा जाए तो यही सबसे कमजोर होता है क्योंकि यही टूटता है सबसे पहले. स्वार्थ से भरे होते हैं ये रिश्ते... कोई भी रिश्ता एक नाम देने भर से कमजोर हो जाता है, उसमें तेरा मेरा और अन्य बहुत सी बातें बीच आ जाती हैं.  अपना इस दुनिया में कोइ नही होता है.
'हम स्वयं अपने लिए ही हो जाए वो भी बडी बात है.. '
किन्तु क्या हम इस सच को स्वीकार कर पाते हैं ??

    आज के जमाने का सोशल मीडिया सच में बहुत अच्छी बात है, कम से कम आप अपनी भावनाओ को दिल खोलकर  जाहिर कर सकते हैं. कोई तो होगा जो देखेगा, पढेगा.. वर्ना कौन सुनना चाहता है आपके विचारो को ?? और हम कहे भी तो किससे? आपका या आपकी बात का बिना आकलन किये या उस पर अपने विचार व्यक्त किए, कौन सुनेगा? यहाँ तो हर बात पर लोग, बात के पीछे क्या कारण होगा, उसमे ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं.  हर बात चीर - फाड़ कर देखा जाता है, कुछ और मायने निकाल कर बात का बतंगड़ बनाया जाता है..
     मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है - हमने बचपन से यही पढा, सीखा और जीया है.  ऐसे में अकेला चलना कहाँ तक मुमकिन हो पाएगा ? आज के दौर में अकेले रहने से मतलब क्या सचमुच पूर्णतः अकेले रहना है या मतलब परस्त हो कर जीने से है? या खुद को वक्ति बना लेने से है ?

"अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता "

दोनो ही बातें सही है किन्तु विरोधाभास उत्पन्न करती  हैं.

" चाहती हूँ अकेली रहना
  पर कोई रहने नही देता !
   कभी यादें चली आती हैं
  कभी कोई आवाज है देता !!
मानतीं हूँ, अकेली हूँ
नितांत अकेली
जानती हूँ
नही है कोई
वाहिद सहारा मेरा
पूर्णता अपूर्णता के
मंझधार में
गोते लगा रही हूँ..
आज इसको, कल उसको
पुकारती जा रही हूँ
न जाने क्यूँ बस
जिये जा रही हूँ..
जिये जा रही हूँ... "

मेरे विचारों पर सहमत /असहमत होने का पूर्ण हक है आपको,  किंतु कृपया एक बार judgemental हुए बिना, मेरे लेखन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें, मुझे खुशी होगी !!

आभार
वैशाली
9/6 /16
11.30 am
 

   

5/02/2016

बदलते चेहरे

नकाबो से भरे चेहरे 
वक्त को देख बदलते हैं 
स्वार्थ की खातिर वो, 
अपनो को भी ठगते है ! 

सही गलत का भेद कहां 
खुद को सच समझते हैं 
स्वार्थ की खातिर वो, 
सारे रिश्ते बुनते है....!! 

बेवकूफ़ो की जमात के 
संवेदना का दम भरते हैं, 
समानता के लिए अब
हम ईश्वर का रूख करते हैं.. 

मिले वहाँ से न्याय हमें 
आस्था इस पर रखते हैं 
इसी विश्वास पर हम
हाथ जोड़ नमन  करते हैं....!! 


नए अनुभव से शिक्षित.. 

वैशाली 
30/04/2016
6.55 pm


4/23/2016

वो बेटी

"वो बेटी"
जब बनने लगे पक्ष घरों में
पक्षपात हो ही जाता है
दो-चार बच्चों के बीच 
एक कुछ ज्यादा भाता है !
लडकों की श्रेणी ही अलग
सबसे ऊंचा ओहदा पाता है
बेटियों के बीच भी अक्सर
ऊंच - नीच का होता नाता है !
ऊंचे बैठे नीचे कहां देख पाते
नीचे से सब साफ नजर आता है !
बातें जो दिल में घर कर गयी
कहाँ वो निकल पाती हैं??
वो बेटी तो बेचारी
खून का घूंट पीकर रह जाती है !
एक गलती भी उसकी
सज़ा है बन जाती
भर्रायी सी आवाज में,
अश्क दबा जाती है.. !
वक्त-बेेवक्त की छींटाकशी
उसको परेशान कर जाती
चार लोगों के बीच फिर भी
वो मज़ाक बनायी जाती है
कर दरकिनार उसको
सबकी मौज हो जाती है !
सूने आंगन सा,
वो मन अपना पाती है
मौन खडे़ माँ-बाप को देख
दिल टूटता, आँखें सूखी जाती हैं !
हर बार उसी आँगन में आकर
वो बेटी फिर भी मुस्काती है
वो बेटी फिर भी मुस्काती है... !!
"वैशाली "
23/04/2016
शाम.. ४.००