3/25/2013

प्यार और सम्मान की सच्ची अधिकारिणी

                                             
सदियों से चली आ रही परंपरानुसार कहा ही गया है कि "प्यार और सम्मान पर पहला हक परिवार के बुजुर्गो का है। हाँ ! यह सत्य है , पर ज़िन्दगी जैसे - जैसे आगे बढती है हमारे रिश्ते और विस्तृत होते चले जाते है। हर रिश्तो के अपने मायने है और उनको निभाने के तौर तरीके भी विभिन्न है। जैसे - माता-पिता से, पत्नी से, बहिन से,पति से दोस्तों से, रिश्तेदारों से ..इत्यादि। 

         हमारे देश में रिश्ते निभाने में विश्वास किया जाता है, हर पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को यह जरूर सिखाने की कोशिश करती है। हर रिश्ते की अपनी अलग सीमाएँ  होती है जिन्हें लांघना उचित नहीं होता है। इन अनेको रिश्तो में अपने अलग रंग और अलग भावनाएँ होती है। हमारे देश में तो दुश्मन को भी एक रिश्तेदार की तरह मानकर , दुश्मनी का रिश्ता भी बखूबी निभाया जाता है। कहीं रिश्ता सिर्फ सम्मान'का, कहीं दोस्ती का, कुछ खट्टे-मीठे , तो कुछ प्यार भरे होते है। कुछ रिश्ते ऐसे होते है जिन्हें आजतक कोई समझ नहीं पाया है, और उसे किसी एक भावना के साथ भी जोड़ा नहीं जा सकता है, जैसे की ..बहु का ससुराल वालो से रिश्ता, या दुसरे शब्दों में कहे तो " सास-बहु" का रिश्ता। 

         एक स्त्री जो बेटी, बहिन बनकर पैदा होती है, बड़ी होकर प्रेयसी, पत्नी, बहु बनती है और फिर माँ। इन सभी रिश्तो को वह बखूबी निभाती है। जीवन के हर मोड़ पर खुद को सबके पीछे रखती है। फिर भी आज तक वह उस सम्मान की अधिकारिणी नहीं बनी जो उसका हक है। 

      एक लड़की को जन्म के बाद उम्र के हर पड़ाव पर उससे प्यार और सम्मान देना सिखाया जाता है, पर यह नहीं सिखाया जाता कि  वह भी उसी प्यार और सम्मान की समान हक़दार है। जब वह बहु बनकर ससुराल में कदम रखती है तो उसे महसूस कराया जाता है की उसका खुद का तो कोई सम्मान है ही नही । नाजो से पली बढ़ी वही लड़की का जीवन, मात्र सिन्दूर लगा लेने और मंगलसूत्र पहन लेने से, पूरी तरह बदल जाता है। परायो के बीच रहकर उसे खुद को उनका अपना साबित करना होता है। परिवार का हर व्यक्ति उससे प्यार और सम्मान की भरपूर आशा रखता है , पर क्या कभी उसे भी उतना ही मिल पता है ??

           देखा और सोचा जाये तो सही मायनो में तो प्यार और सम्मान की पहली अधिकारिणी घर की बहु होती है। आप उसे ब्याह कर, गाजे बाजे के साथ अपने बेटे और पूरे परिवार की ज़िन्दगी में लाते है, बहुत प्रेम से उसका गृह प्रवेश करते है।  आप तो सभी अपनों के बीच है, एक वही अकेली होती है जो कि  परायो के बीच होते हुए भी उन्हें अपना समझती है। ऐसे में ससुराल वालो का कर्तव्य होता है कि  उस से आशा न रखते हुए , उसे प्यार और सम्मान दे।  पहले देने का सोचे फिर पाने का। कहा ही गया है कि  " जो हम बोते है , वही हम काटते (पाते) है। 

    एक लड़की का बहु के रूप में दूसरा जन्म सा होता है क्यूंकि वह दुसरे परिवार में जाकर नए सिरे से उनके रीति -रिवाज़ , रस्में , तौर-तरीके इत्यादि सीखती है। वह एक कोरे स्लेट की भांति  होती है , जो उसे सिखाया जाता है वही वह करती जाती है। उससे हमेशा कर्तव्यो में बेटी की तरह उम्मीद रखी जाती है और व्यवहार एक बहु ( परायी लड़की) की तरह किया जाता है , आप बबूल बो कर , आम की उम्मीद कैसे कर सकते है ?? यदि वह आपका व्यवहार आपको ही लौटाती है तो क्या गलत करती है ?   इस तरह वह बढती दूरियों में एक अलग घर या अपने अलग आशियाने का सोचती है तो कुछ गलत नहीं करती है। 
      
           प्यार और सम्मान का पहला अधिकार पाने की अपेक्षा रखने वालें , पहले उसे देना तो सीख ले। जब तक आप उसे पूरे दिल से , सम्मान से पहले दिन से ही प्यार से नहीं अपनाएंगे तो यह दूरियां कभी मिट नहीं सकेंगी। यदि आप एक कदम उसकी और बढ़ाएंगे तो यक़ीनन वह चार कदम बढ़ाएगी क्युकी यही स्त्री है, उसका व्यक्तित्व है, भगवन ने उसे ऐसा ही बनाया है। 

                बहु को बेटी बनाकर तो देखिये, दूरियों का नामोनिशान तक नहीं होगा और वह एक नहीं दो परिवारों की बेटी बन जाएगी। प्यार और सम्मान के अधिकार की लडाई ही कहाँ रह जाएगी? 

" जन्म-जन्मो से वह बस कर्तव्यो को पहचानती है,
  प्यार और सम्मान मिले ,अधिकारों को कहाँ जानती है ?? "
     

3/16/2013

अलादीन का जादुई चिराग-3 :- कठिनाइयाँ या सरलता ??



जीवन लहरों सा होता है, कभी बहुत तेज़ तो कभी शान्त। उतार और चढ़ाव, ये  जीवन के अभिन्न अंग है। हम चाहे तो भी इनसे दूर नहीं नहीं जा सकते। वैसे भी प्रकृति का नियम है कि  हम जिस चीज़ या बात से जितना दूर भागते है वही हमारे उतने ही नज़दीक आ जाती है।

        लाखों  लोग है दुनिया में जो ऊँचाई  छूने  की आकांक्षा रखते है किंतु  कुछ ही लोग उसे छू  पाते है, बाकि सभी किस्मत के ऊपर  इल्जाम  लगा कर अपने मन को संतोष दे देते है। किन्तु यह सत्य नहीं है, किस्मत ,वक़्त  - ये शब्द  बहाने है , अपनी हार न मानने और अपनी हार का हार किसी और को पहनाने के लिए।  सत्य यह है कि  - हमारे जीवन में हमारे कार्य से जुडी हर एक नाकामयाबी हमारी अपनी है, 99 % हम अकेले ही जिम्मेदार होते है। 

       हम सपने तो बहुत देखते है, देखना भी चाहिए।  सपने, मंजिल पर पहुँचने की पहली सीढ़ी मात्र है।   हमे समझना होगा की यह सीढ़ी मात्र है , मंजिल नहीं।  क्यूंकि  " सपने सिर्फ देखने मात्र से पूरे नहीं हॊते, कार्य करने से पूरे होते है। "  उन्हें पाने के लिए सही दिशा में, सही तरीकों  से निरंतर प्रयास करना जरूरी होता है।  असफल होना बुरा नहीं किन्तु असफल होने के कारण  खोजने जरूरी है, जो अनेको हो सकते है , जैसे - शायद दिशा ही गलत चुनी हो, कार्य करने के तरीको में कमी हो, मेहनत  में कमी रह गयी हो, या हमे खुद पर ही    १०० % विश्वास न हो, या जो कार्य हम कर रहे है वह हमारी आत्मा की आवाज़ न हो। 

            एक सर्वे के अनुसार भारत देश में अधिकतर लोग वह काम करते है, जो उन्हें करना पड़ता है, अर्थात वो अपने दिल से नहीं , अपनी पसंद का नहीं बल्कि परिवार के कहने पर या किसी अपने के कहने पर या परिस्थिति वश करना पड़ता है। ऐसे किये हुए काम सिर्फ काम बनकर ही रह जाते है , ऊंचइयो पर नहीं पहुचाते । हमे अपना काम अपनी रूचि के अनुसार चुनना चहिये। 

              ज़िन्दगी की जंग में कभी हार तो कभी जीत होती है। हार तब होती है, जब हम मान लेते है। न मनो तो हार मुमकिन ही नहीं है।  कहा ही गया है कि - " मन के हारे हार, मन के जीते जीत "।  हम अपने अवचेतन मन में क्या सन्देश भेजते है, उसी पर हमारी हार और जीत संभव होती है। यदि हम कठिनाई पर ध्यान देंगे तो वही बार बार आएगी और यदि हम उस पर ध्यान न देते हुए यह सोचे की इस से निकलने के और क्या रास्ते है ?, तो हमे यकीनन राह मिल जाएगी । हम क्या सोचते है इस पर हमारी कामयाबी और नाकामयाबी दोनों ही टिकी हुई है। यदि हम दिल से यह मान ले की सब कुछ सरल है , आसान  है तो सच मानिये, आपकी वह कठिनाई , सरलता में बदल जाएगी । पर बात बस इतनी ही है कि  वह सोच,वह आवाज़ दिल से आनी  चाहिए, पूरा विश्वास होना चाहिए ।
             
 दुनिया में सच मने तो ऐसी कोई कठिनाई नहीं है जो हमे कुछ अच्छा  न देकर गयी हो।  सही मायनो में कठिन कुछ होता ही नहीं है , वह तो बस हमारे दिमाग की उपज है। हम राह  में आई रूकावटो को किस रूप में लेते है यह हमारी सोच का ही परिणाम है ..मान लो तो पहाड  है ,नहीं तो कंकर ।  यदि हम ज़िन्दगी के सबक सीखकर आगे नहीं बढ़ते है तो इसमें " भगवन जी " या हमारी " किस्मत" का कोई दोष नहीं है।  सब कुछ दुनिया में आसन है / सरल है  , बस मन में विश्वास होना चहिये। " इरादे पक्के हो तो राहें  बन ही जाती है "।  ठान  लो तो सब कुछ सरल है , आसान है । 

         जीत कठिनाई में नहीं , सरलता में है। जीतना है तो सबकुछ सरल करना सीख लेना चहिये। क्यूंकि दुनिया में बहुत से लोग ऐसे है जिनके लिए वही काम सरल है जो आपको कठिन जान पड़ता है। सोचकर देखिएगा तो जान जायेंगे कि  कुछ भी कठिन नहीं है। 

" दिल की आवाज़ को पहचान लो , 
   मन में बसा लो,एक नई  पहचान लो ।"
         

3/08/2013

निर्णय - सही / गलत

मानव मन कितना विचलित होता है। वह हर अपनी चीज़ को बहुत पसंद करता है, चाहे फिर वह रिश्ते हो या भौतिक साधन। यहाँ तक कि  उसे अपनी पसंद-नापसंद पर ख़ास इख्तियार होता है। इसी तरह हर एक बात पर  उसका अपना एक ख़ास नजरिया होता है, जिससे वह अत्यधिक जुड़ जाता है। 
   
       हमारे चारो ओर अनगिनत घटनाएँ घटती  है। कुछ हमे पसंद आती है और कुछ नापसंद। घटना पर हमारी नज़र पड़ते ही उस विषय में हमारी अपनी एक राय  कायम हो जाती है। कुछ घटनाएँ हमारे साथ घटती है तो कुछ हमारे चारो ओर  रहने वले हजारो लोगो में से किन्ही के साथ। सभी लोग अपनी नज़र से उसे देखते और तौलते है। किन्तु हर बार हर व्यक्ति अपने नज़रिए को ही सही क्यों मानता है ? क्यों हम दूसरो की ज़िन्दगी के सही/गलत को अपने नज़रिए से क्यूँ तौलते है ? क्या सचमुच यह अधिकार है हमें ?

                            सच पूछा  जाये तो  हमें जवान होते अपने बच्चे की ज़िन्दगी से जुड़े फैसले बिना उसकी सहमति से , लेने का भी अधिकार नहीं है।  फिर भी हम दुनिया में दूसरे लोग किस तरह की ज़िन्दगी, क्यों बसर कर रहे है , पर सवालिया निशान  लगाने का क्या हक है ? जबकि हम न तो उनकी ज़िन्दगी की हर बात को जानते है। बस जो सामने दिखा  उस पर अपनी राय  बना लेना और उसपर सही/ गलत का फैसला भी खुद कर लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ? बहुत आसान होता है दूसरो को गलत बताना , किसे क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए कैसे करना चाहिए ...इत्यादि पर खुद ही निर्णय ले लेना , पर क्या कभी यह सब करते वक़्त हम सोचते है ? कि  किसी पर एक उँगली  साधते वक़्त बाकि की तीन  उंगलियाँ  हमारी ओर  ही होती है।  हम नौकरी , व्यापार और रोजिंदा के निर्णय जैसे कपडे लेने से शादी तक के लिए दुनिया की सलाह लेने जाते है ? या किसी  के विरोध करने पर ( अपनों के सिवाय) अपने निर्णय को बदल लेते है ? नहीं ना ??

            पहचान बन चुके चेहरों पर चूँकि उँगली  उठाना बहुत सरल है और यह हमारा धर्म बन गया है। क्या सही है क्या गलत है  सबको  यह बताना हमारी आदत  बन गयी है। संस्कृति की दुहाई देने वालो से विनम्र विनंती है कि  कृपया जाएँ और हमारी अपनी विशाल संस्कृति का अध्यन करे, उसे अच्छी तरह समझे और फिर निर्णय ले।  ऐसा निर्णय जो किसी की आज़ादी में बाधक न बने। हमारी संस्कृति वह नहीं है जो कि  १० ०  या १ ० ० ०  वर्ष पहले पुरुषो द्वारा  बनाये  कुछ नियम। बल्कि वह तो लाखो करोडों  वर्ष पुरानी है। .......

मंथन कीजियेगा ....!!

    
         

3/05/2013

अलादीन का जादुई चिराग -2 : चमत्कार

                                                                       
पिछले अंक में हमने जाना था कि  हम जादुई चिराग को अपने जीवन में ला  सकते है, सकारात्मक सोच से। वह सकारात्मक सोच को जीवन में कैसे लाया जाये यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है।  सकारात्मक सोच तो धरातल ( नीवं) है।  सबसे पहले हमे नीव को मजबूत करना होगा। उसके लिए जरूरी है की आप इस लेख को खुले दिल और दिमाग से पढ़ें। बिना आलोचनात्मक रवैया अपनाये।  बस ध्यान से  पढ़िए और बाद में निर्णय कीजियेगा। 
      हमारा अवचेतन मन ही हमारे जीवन का आधार है। जाने-अनजाने जो भी नकारात्मक विचार हमारे मन में आते है, उन्हें अवचेतन मन ग्रहण करके जीवन में उतार देगा।  जैसे कि  आप सोचेंगे कि  -" मेरे जीवन में बहुत कठिनाइयाँ है। "  बस यह  आपके अवचेतन मन में गया और आपके जीवन में कठिनाइयाँ दिन-दुनी रात चौगुनी प्रगति करने लगती है।  इसलिए  सबसे पहले जरूरी है -" नाकारात्मक सोच का त्याग".  जो भी सोचे और जो भी बोले बस सकारात्मक होना चाहिए। छोटी छोटी रोजाना की बातें है जिन्हें बस बोलने का तरीका बदल दे तो काफी कुछ बदलने लग जायेगा। जैसे- " मुझे आज देरी नहीं करनी है " सोचने की जगह सोचिये-    " मुझे समय पर पहुचना है ".   " शोर मत करो " के स्थान पर -" कृपया शान्ति बनाये रखे " कहिये।  जितना हम कहेंगे " मत करो" उतना ही दिमाग वही करने जायेग। 
    
                अब हमे यह जानना है कि  ज़िन्दगी में हमारा उद्देश्य क्या है ? अंततः हम चाहते क्या है? वह क्या है जो हमे जादुई चिराग से चाहिए था?  बस  उन्ही उद्देश्यों को एक साफ़ कागज में थोड़े बड़े अक्षरों में लिख लिजिये ( सकारत्मक शैली में) और कमरे में ऐसी जगह लगा लीजिये कि  वह आपको हमेशा दिखाई दे।  फिर उसे कम से कम लगातार २१  दिनों तक खुले मन से इस तरह पढना है जैसे कि  आप कोई प्रार्थना पढते हो , जिस पर आपको १०० % यकीन हो। मन में १००% विश्वास का होना बहुत जरूरी है। १% अविश्वास भी आपके ९९ % विश्वास को खत्म कर देता है। 
आपके सकारत्मक विचार इस प्रकार हो सकते है :-
१) मै  अपने शरीर को हमेशा स्वस्थ्य रखता हूँ। 
२)  मैं दिन-प्रतिदिन तरक्की कर रहा हूँ। 
३) मेरी सोच और मेरी ज़िन्दगी सकारात्मक है। 
४)मेरी समस्या का हल पाने की मुझमे अदभुत  शक्ति है। 
इत्यादि .... 

बस इसे पढना है रोज़ सुबह और शाम, एक प्रार्थना और उपासना की तरह।  बहुत जल्द आप अपनी ज़िन्दगी में चमत्कार होते देखेंगे। 

      हमारी मान्यता ही हमारे जीवन का आधार होती है। हर व्यक्ति को वही काम या पेशा अपनाना चाहिए जो उसके दिल के करीब हो और जिसके करने से उसे ख़ुशी हासिल होती हो और वह उससे दिन के १० -१२  घंटे भी ख़ुशी -ख़ुशी कर सके। क्यूकि  जिस काम को आप ख़ुशी -ख़ुशी करेंगे उस काम में तरक्की अवश्य होगी। 

        हमारी ज़िन्दगी को सही और गलत बनाना भी हमारे ही हाथ में है। अपने पर विश्वास और साथ में बहुत सी मेहनत  सफलता का सूत्र है। ज़िन्दगी में जो कुछ भी होता है उसके पीछे कुदरत की कोई न कोई वजह जरूर होती है और वह वजह हमेशा सही ही होती है। 

   बचपन से दृढ - इच्छाशक्ति  और भगवान पर विश्वास रखना  हमे माता - पिता  ने सिखाया, बहुत सालो तक इसके इसे सही रूप से जीवन में कैसे उतारना  है हमे पता ही नहीं था और हम सोचते रहे की हमारे जीवन में बहुत कठिनाइयाँ है। पर जब आज मुड  कर देखती हूँ तो समझ आता है कि  माँ के जीवन में इतने चमत्कार कैसे हुए?  सबसे बड़ी वजह थी  उनका विश्वास और दृढ़ - इच्छाशक्ति  और हमेशा यह कहना कि -" जो होता है अच्छे के लिए होता है " और " सब ठीक हो जायेगा". और सच में काफी कुछ उनके अनुरूप होता चला गया। तूफ़ान आते है और चले भी जाते  है। 

 "आसान" करेंगे सबकुछ अगले अंक में।