लेना और देना दुनिया की बहुत पुरानी रीत है। कहा जाता है कि - यह दुनिया, रिश्ते-नाते, दोस्ती-यारी सभी कुछ एक व्यापार की तरह ही है। जहाँ एक हाथ ले और एक हाथ दे , वाली बात होती है। कोई भी रिश्ता लम्बे समय तक एक तरफ़ा नहीं चल सकता है। प्यार भी एक तरफ़ा अपना वजूद खो देता है। प्यार की आग भी दोनों तरफ बराबर लगी हो , तब ही सही मन गया है। पर क्या यह लेन-देन हमेशा समान पैमाने पर ही होता है क्या ?
क्या लेना और देना जरूरी है ? आपको किसी ने कुछ दिया , तो क्या आप वही उसको लौटाए , यह जरूरी है ? हम चीजों का , सामान का व्यापार तो करते ही है, साथ ही साथ अनमोल से रिश्तों का भी व्यापर कर बैठते है। रिश्तो में भी मतलब और फ़ायदा ढूंढते है। जिस से जितना फ़ायदा उस से उतना ही रिश्ता।
कुछ लेन -देन रिश्तो को बनाये रखता है तो कुछ उनके टूटने की वजह बन जाता है। जरूरी और समझने वाली बात यह है कि - हम खुद को कितना जानते है ? दिखावा करते वक़्त तो हम अपने आप को सबसे उपर, प्रत्येक रूप से, दिखाते है, पर जब आचरण करने की बात है या फिर झगडा करने की तो हमारा सही चरित्र सामने आ जाता है। लेन -देन का सबसे विकृत स्वरुप देखने मिलता है तो झगड़ो मे… क्युंकि तब होता है - अपशब्दों ( गालियों) का लेन -देन।
असली लडाई/ झगडा शुरू ही होता है अपशब्दों से। किसी ने आपको अपशब्द कहे और हम शुरू हो गए लड़ना कि - " गाली क्यों दी" ? पर मेरा प्रश्न यह है कि मन उसने अपने चरित्र के हिसाब से गाली दी ,पर आपने उस से "ली " क्यों ? कोई आपको कचरा या फ़ालतू सामान मुफ्त में देना तो क्या आप ले लोगे ? नहीं ना… !!तो फिर उसके दिए अपशब्द आपने लिए क्यों ? कोई आपको, मान लो कि "कुत्ता" ( बहुत अधिक बोला जाने वाला अपशब्द) कहे , तो क्या आप बन जाओगे ? यदि अच्छे रूप में "प्रधानमंत्री" कहे तो भी क्या फर्क आएगा? आप वह बन तो नहीं गए ना?
फ़िर ..?? सोचने वाली बात है….
भगवन ने आपको दो कान और उन्ही दोनों कानो के बीच दिमाग क्यों दिया है ?? कभी सोचा है आपने ??
कोई अच्छा कहे तो हम तुरंत प्रसन्न हो जाते है और बुरा कहते ही क्रोधित , इसका मतलब तो यही हुआ कि हम बिना अपने दिमाग का इस्तेमाल किये सब कुछ बस लेने में ही विश्वास करते है। अच्छा तो उसी पल लौटते नहीं किन्तु बुरा , खुद नीचे गिरकर भी , उसी पल देने में देरी नहीं करते। अच्छा देने में यह आतुरता कहाँ चली जाती है?
हमे भगवन ने दोनों कानो के बीच दिमाग इसलिये दिया है कि -हम एक कान से सुने, फिर दिमाग का इस्तेमाल करके अच्छी बातों को रखे और बाकि सब दुसरे कान से निकाल दे। " गवाँर की गाली - हँस कर टाली ". मेरे पिता द्वारा बचपन में सिखाया हुआ यह पाठ , आप यकीन मानिए , ज़िन्दगी में मेरे बहुत काम आया है। जब भी कोई अनजान या नज़दीकी व्यक्ति कोई चुभती बात कह दे और वह बात आपकी शान्ति भंग कर दे और आप लड़ना भी न चाहे तो बस इसी वाक्य को ध्यान में लायें और फिर देखे चमत्कार , आपकी शान्ति वापस आ जाएगी।
5 comments:
दोनों कान आपस में लिंक है.. दिमाग थोडा नीचे पद जाता है, एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो..
दिमाग को रेस्ट करने दो :)
आपने अद्यात्म के स्वरूप को और भौतिकता के रूप को बड़े ही सहज रूप मैं प्रस्तुत किया
SARTHAK RACHNA..BADHAI
Thanks a lot Deepak Baba n Anuj ji
धन्यवाद, राजेंद्र जी
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