6/25/2012

व्रत , स्त्रियाँ और औचित्य

भारत  रीति - रिवाज , संस्कारों  का देश माना  जाता हैं . यहाँ बचपन से ही धर्म  और धार्मिकता के बारे में सिखाया जाता है . कुछ सीखे तो सभी के लिए समान  होती हैं पर कुछ सीखे लिंग भेदी  भी होती हैं , अर्थात लड़के व  लडकियों के लिए अलग -अलग। बड़ो का आदर करना, माँ-पिताजी का कहना मानना  इत्यादि तो सभी को सिखाया जाता है परन्तु घर का काम, रीत-रिवाज़ ,पूजा-पाठ ,व्रत-त्यौहार  इत्यादि सिर्फ लडकियों को सिखाया जाता है, ऐसा क्यों ??
                  हम सदियों से चली आ रही हर रीत का अक्षरत: पालन करते चले आ रहे है, बिना सोचे या जाने कि  आज के दौर में क्या इनका औचित्य है ??
                                 सैकड़ो वर्ष पहले यह व्यवस्था थी भारतीय समाज में कि  पुरुष सिर्फ घर के बाहर  का काम देखते थे और स्त्रियाँ  घर के अन्दर घर, परिवार और बच्चों की देखभाल करती थी।  पुरुष न सिर्फ काम करते थे बल्कि अधिकतर उन्हें परदेश जाना पड़ता था। आज की तरह सुविधओं  का आभाव होने से कठिनाइयों का सामना बहुत ज्यादा करना पड़ता था।  चूँकि स्त्रियों के जीवन का आधार पुरुष ही हुआ करते थे इसलिए उनके जाने के बाद उन्हें उनकी चिंता सताती थी,बस यहीं से व्रतों  पूजा-पाठ  का सिलसिला शुरू हुआ ऐसा माना जाता है। इससे एक तो खाली  समय  का सदुपयोग होता था,अनेको  स्त्रियाँ मिलती,साथ पूजा करती,गीत गाती, मन बहल  जाता था। दूसरा, ध्यान कहीं और लगने से चिंता भी कम होती थी।
                      पुरुष तो परदेश में दिन-रात परिवार के लिए कड़ी मेहनत करते और अधिक से अधिक धन कमाने में लगे होते थे। उन्हें उस वक़्त न तो फुर्सत थी ना जरुरत थी इन व्रतों  को करने की।
 बात ये नहीं कि  यह' सही है या गलत ? उस ज़माने के लिए तो सही मानी भी जा सकती है,किन्तु सोचना यह है कि आज के बदलते  ज़माने के साथ इनका वजूद कितना उचित है ?

आज जहाँ स्त्रियाँ न सिर्फ घर की देहलीज लांघ काम करने चल पड़ी है बल्कि हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिला पुरुषों  के साथ खड़ी  है, बल्कि कुछ कदम आगे ही खड़ी  मिलेगी। ऐसे में क्या ये व्रत उन्हें उनकी कमजोरी का एहसास नहीं दिलाते ? जब बात बराबरी की है तो साल में कई   दिन अपने आप को कमतर क्यों साबित करती है? क्या कोई पुरुष स्त्रियों के लिए व्रत रखता है? तो स्त्रियों को आज उनके लिए व्रत रखने की जरुरत क्या है? क्यों कोई पुरुष नहीं चाहता कि  उसकी माँ,पत्नी और बेटी स्वस्थ्य व  दीर्घायु हो?
                              दूसरा पहलु यह भी है कि  क्या सचमुच व्रत करने से बेटे,पति की आयु बढती है? और यदि यह सच भी है तो क्या यह व्यवस्था भगवन ने सिर्फ अलग से भारत देश में रहने वाले पुरुषो के लिए की है? क्या विदेशो में रहने वाले पुरुषो को इन व्रतों  की जरुरत नहीं? इससे तो यह स्पष्ट होता है कि  भारतीय पुरुष इतने कमजोर है या भगवन की नज़रो में इतने कमतर है जिसके लिए उन्हें अपने स्वास्थ्य व  आयु के लिए स्त्रियों के व्रतों  पर निर्भर होना पड़ता है।
                              आज के दौर की पढ़ी लिखी महिलओं को कम से कम अंध-रीतियों में शामिल होने से पहले उनके औचित्य के बारे में जरूर सोचना चाहिए। अपने मन के उपरांत  सिर्फ हमारा धर्म या समाज के कहने से कुछ भी करने से बचना चाहिए। वहीँ करे जिसे आपका दिल और दिमाग दोनों स्वीकार करता हो।

2 comments:

Vaisshali said...

Pallavi Trivedi अच्छा और तर्कपूर्ण लेख है आपका ....मगर सदियों से चली आ रही परम्पराओं का विरोध करने पर आलोचनाओं का सामना करना ही पड़ेगा भले ही वे आज के समय में एकदम बेतुकी हैं!

yeh pallavi ji ke comment hai...Face book par :)

Anonymous said...

Agree these things are meaningless in todays times!! I think most of the people take pride in carrying forward traditions without realising why they were introduced in the first place and their relevance in today's world.