मंदोदरी -मेरी नज़र से
विवाह उसका हुआ था
एक राजपुत्र से
गुणी -गुणवान से
विद्वान से
दस कलाओं में
पारंगत कलाकार से
संस्कृत के पंडित्य से
एक बड़े शिव भक्त से
रहती राजमहल में थी
स्वर्ण की खान में
रश्क करती सहेलियाँ
किस्मत पर उसकी
भरा पूरा परिवार था
ननद देवर का प्यार था
बच्चे आज्ञाकारी थे
वीर-गुणों की खान थे
खुश सदा रहती थी
फिर वो मुरझाने लगी
अश्कों को बहाने लगी
मिन्नतें पति से की हज़ारो
वो बात उसकी ठुकराने लगा
अभिमान में छाने लगा
वो विनाष को पहचान गयी
समझाने लगी सहम गयी
मौत से डरती न थी
बात बस इतनी सी थी
सर्वनाश हो जायेगा
नाम पुरखों का मिट जायेगा
किन्तु हृदय रो रहा था
नारी मन विचलित जो था
ऊपर से मुस्काती थी
घाव दिलो के न दिखाती थी
पल पल वो टूट रही थी
सिसकाती थी मुस्काती थी
जानती थी मर्यादा को
उसके स्वाभिमान की आभा को
सौतन से गुरेज़ न था
पर,
पर-स्त्री से परहेज़ था
दुखी मन हुआ जा रहा
काबू में कुछ न आ रहा
पति समझने राजी न था
कुछ भी बेचारी के हाथ न था
कैसे बचाती मर्यादा
परिवार की गिरती आभा
सबकुछ सह सकती है
पति चरित्र पर लगे
प्रश्न को
कैसे सह पायेगी ?
भरे नैनों से मुस्काती
कभी रूठती
कभी मनाती
कभी कोप भवन
में जा बैठती
सबकुछ करके
हार रही थी
एक स्त्री होकर
दूजी स्त्री के
स्वाभिमान को
बाँट रही थी
उस पर-नारी का
दुःख जगत को दिखा
इस मंदोदरी की तड़प का
किसी को एहसास न था
सोचो -
क्या गुजरती होगी
जब पति चले
विनाश राह पर
परिवार डूबा जाए
गहरे गर्त में
बेटे को भी
समझ न आये
वो पिता के संग
कदम मिलाए
पत्नी फिर भी रह लेगी
माता कैसे सह पायेगी ?
गलत राह पर चले पुत्र को
कैसे सही राह दिखाएगी ?
एक सती के सतित्व को
वो कैसे बचा पाएगी ?
यह कलंक जो लग जाएगा
इतिहास मिटा नहीं पाएगा
रावण का मोल भविष्य में
दो कौड़ी का रह जाएगा
साथ रावण के उसका भी
वजूद मिट के रह जाएगा
कोई पिता अपनी पुत्री का
नाम मंदोदरी न रख पाएगा
कही उसे भी न मिले रावण
यह डर फन फैलाएगा ....
उसकी सारी कोशिशें
गर्त में चली गयी
बचा सकी न नाम
सिमट के वो रह गयी
खुद रूपवान
पति गुणवान
बस एक कलंक ने
किया वो काम
धो दिए अच्छे कर्म सारे
ज़माना सारा ताना मारे
किस किस को वो समझाए
व्यथा अपनी कैसे सुनाए
कौन समझेगा
पति का वृतांत
उसके पास नहीं कोई उपाय
राम तो ठहरे मर्यादा पुरुषोत्तम
वो कैसे किसी को मारते ?
फिर रावण को मोक्ष मिलता कैसे ?
फिर कैसे वो रावण को तारते ?
सूझा न उसको कोई उपाय
मरना उसको राम से ही था
कोई समझा नहीं इस बात को
मतलब उसको मोक्ष से ही था
जो होती सीता की कामना
रखता उसको महलों में
यूँ न रखता बना पर्णकुटी
खुली अशोक वाटिका में
रहती मंदोदरी की सेवा में
देता सारे वैभव उसे
करती न कंद मूल कलेवा
दासियों का रहता रेला
कैसे खोज पाते हनुमान ?
देख न पाते राजा राम
चार दीवारी महलों की
कलंकित करती सीता को
दाग न मिटा पाती फिर भी
लेती सौ अग्नि परीक्षा वो
किसी ने यह पक्ष न सोचा होगा
सिर्फ रावण को कोसा होगा
रावण का यह रूप
कौन जान पाएगा ?
मंदोदरी की यह व्यथा
कौन समझ पाएगा ?
रावण का कसूर था इतना
सीता को हाथ लगाया था
चाहा मोक्ष उसने राम से
फिर ये स्वांग रचाया था
सिर्फ मोक्ष की खातिर
परिवार दांव पे लगाया था
आज भी रावण जलता है
मोक्ष कहाँ उसे मिलता है ?
सबकुछ खोकर भी
सिर्फ उसने बदनामी पायी
चाह कर भी मन्दोदरी
खुद विभीषण न बन पायी
अपने पति को कर कोशिश भी
चरित्र हनन से न बचा पायी
वो भी एक स्त्री थी
यह कोई क्यों न समझ पाया
पतिव्रता थी क्या करती
कोई उपाय न उसे आया
कैसे देखा होगा उसने
बिखरते अपने घर को
कैसे ज़ब्त किया होगा
जब ,
देखा होगा बेटे की मृतदेह को
रोकर लड़ कर ,खोकर भी
सिंदूर की लाज
न बचा पायी
आज भी दर्द सहती है
नफरतों में ज़िंदा रहती है
दुष्कर्म कहाँ दफ़न होते हैं
इतिहास में ज़िंदा रहते हैं
गुण का मूल्य कहाँ
एक अवगुण काफी है
सीता और मंदोदरी
के दुःख में
यही अंतर बाकी है
दोनों ने पाया दुःख
अपने पति की खातिर
एक सबकुछ जीत गयी
एक हार गयी सबकुछ पाकर
क्या सीता ने जाना होगा ?
मंदोदरी की व्यथा को
उसकी मजबूरी को
उसके दिल में उठते दर्द को ?
पति धर्म खूब निभाया दोनों ने
पाकर भी न पाया सीता ने
राम का साथ ,
मंदोदरी ने पाया राज्य
ले हाथों में विभीषण का हाथ
फिर भी उसका दुःख
कोई समझ न पाएगा
उसके दामन का दाग
कभी न धुल पाएगा
कभी न धुल पाएगा ..... !!
वैशाली
9/8/16
5.45 am.
विवाह उसका हुआ था
एक राजपुत्र से
गुणी -गुणवान से
विद्वान से
दस कलाओं में
पारंगत कलाकार से
संस्कृत के पंडित्य से
एक बड़े शिव भक्त से
रहती राजमहल में थी
स्वर्ण की खान में
रश्क करती सहेलियाँ
किस्मत पर उसकी
भरा पूरा परिवार था
ननद देवर का प्यार था
बच्चे आज्ञाकारी थे
वीर-गुणों की खान थे
खुश सदा रहती थी
फिर वो मुरझाने लगी
अश्कों को बहाने लगी
मिन्नतें पति से की हज़ारो
वो बात उसकी ठुकराने लगा
अभिमान में छाने लगा
वो विनाष को पहचान गयी
समझाने लगी सहम गयी
मौत से डरती न थी
बात बस इतनी सी थी
सर्वनाश हो जायेगा
नाम पुरखों का मिट जायेगा
किन्तु हृदय रो रहा था
नारी मन विचलित जो था
ऊपर से मुस्काती थी
घाव दिलो के न दिखाती थी
पल पल वो टूट रही थी
सिसकाती थी मुस्काती थी
जानती थी मर्यादा को
उसके स्वाभिमान की आभा को
सौतन से गुरेज़ न था
पर,
पर-स्त्री से परहेज़ था
दुखी मन हुआ जा रहा
काबू में कुछ न आ रहा
पति समझने राजी न था
कुछ भी बेचारी के हाथ न था
कैसे बचाती मर्यादा
परिवार की गिरती आभा
सबकुछ सह सकती है
पति चरित्र पर लगे
प्रश्न को
कैसे सह पायेगी ?
भरे नैनों से मुस्काती
कभी रूठती
कभी मनाती
कभी कोप भवन
में जा बैठती
सबकुछ करके
हार रही थी
एक स्त्री होकर
दूजी स्त्री के
स्वाभिमान को
बाँट रही थी
उस पर-नारी का
दुःख जगत को दिखा
इस मंदोदरी की तड़प का
किसी को एहसास न था
सोचो -
क्या गुजरती होगी
जब पति चले
विनाश राह पर
परिवार डूबा जाए
गहरे गर्त में
बेटे को भी
समझ न आये
वो पिता के संग
कदम मिलाए
पत्नी फिर भी रह लेगी
माता कैसे सह पायेगी ?
गलत राह पर चले पुत्र को
कैसे सही राह दिखाएगी ?
एक सती के सतित्व को
वो कैसे बचा पाएगी ?
यह कलंक जो लग जाएगा
इतिहास मिटा नहीं पाएगा
रावण का मोल भविष्य में
दो कौड़ी का रह जाएगा
साथ रावण के उसका भी
वजूद मिट के रह जाएगा
कोई पिता अपनी पुत्री का
नाम मंदोदरी न रख पाएगा
कही उसे भी न मिले रावण
यह डर फन फैलाएगा ....
उसकी सारी कोशिशें
गर्त में चली गयी
बचा सकी न नाम
सिमट के वो रह गयी
खुद रूपवान
पति गुणवान
बस एक कलंक ने
किया वो काम
धो दिए अच्छे कर्म सारे
ज़माना सारा ताना मारे
किस किस को वो समझाए
व्यथा अपनी कैसे सुनाए
कौन समझेगा
पति का वृतांत
उसके पास नहीं कोई उपाय
राम तो ठहरे मर्यादा पुरुषोत्तम
वो कैसे किसी को मारते ?
फिर रावण को मोक्ष मिलता कैसे ?
फिर कैसे वो रावण को तारते ?
सूझा न उसको कोई उपाय
मरना उसको राम से ही था
कोई समझा नहीं इस बात को
मतलब उसको मोक्ष से ही था
जो होती सीता की कामना
रखता उसको महलों में
यूँ न रखता बना पर्णकुटी
खुली अशोक वाटिका में
रहती मंदोदरी की सेवा में
देता सारे वैभव उसे
करती न कंद मूल कलेवा
दासियों का रहता रेला
कैसे खोज पाते हनुमान ?
देख न पाते राजा राम
चार दीवारी महलों की
कलंकित करती सीता को
दाग न मिटा पाती फिर भी
लेती सौ अग्नि परीक्षा वो
किसी ने यह पक्ष न सोचा होगा
सिर्फ रावण को कोसा होगा
रावण का यह रूप
कौन जान पाएगा ?
मंदोदरी की यह व्यथा
कौन समझ पाएगा ?
रावण का कसूर था इतना
सीता को हाथ लगाया था
चाहा मोक्ष उसने राम से
फिर ये स्वांग रचाया था
सिर्फ मोक्ष की खातिर
परिवार दांव पे लगाया था
आज भी रावण जलता है
मोक्ष कहाँ उसे मिलता है ?
सबकुछ खोकर भी
सिर्फ उसने बदनामी पायी
चाह कर भी मन्दोदरी
खुद विभीषण न बन पायी
अपने पति को कर कोशिश भी
चरित्र हनन से न बचा पायी
वो भी एक स्त्री थी
यह कोई क्यों न समझ पाया
पतिव्रता थी क्या करती
कोई उपाय न उसे आया
कैसे देखा होगा उसने
बिखरते अपने घर को
कैसे ज़ब्त किया होगा
जब ,
देखा होगा बेटे की मृतदेह को
रोकर लड़ कर ,खोकर भी
सिंदूर की लाज
न बचा पायी
आज भी दर्द सहती है
नफरतों में ज़िंदा रहती है
दुष्कर्म कहाँ दफ़न होते हैं
इतिहास में ज़िंदा रहते हैं
गुण का मूल्य कहाँ
एक अवगुण काफी है
सीता और मंदोदरी
के दुःख में
यही अंतर बाकी है
दोनों ने पाया दुःख
अपने पति की खातिर
एक सबकुछ जीत गयी
एक हार गयी सबकुछ पाकर
क्या सीता ने जाना होगा ?
मंदोदरी की व्यथा को
उसकी मजबूरी को
उसके दिल में उठते दर्द को ?
पति धर्म खूब निभाया दोनों ने
पाकर भी न पाया सीता ने
राम का साथ ,
मंदोदरी ने पाया राज्य
ले हाथों में विभीषण का हाथ
फिर भी उसका दुःख
कोई समझ न पाएगा
उसके दामन का दाग
कभी न धुल पाएगा
कभी न धुल पाएगा ..... !!
वैशाली
9/8/16
5.45 am.