8/21/2020

संतान का जन्म : फ़र्ज़ या क़र्ज़

हमारी सृष्टि  की रचना कुछ इस तरह से हुई है कि यह निरंतर चलती ही रहती है। संसार में मनुष्य का जन्म और मृत्यु दोनों ही भगवन के हाथ में है। हर इंसान कुछ मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों के साथ जन्म लेता है।
माता- जन्मदायिनी और पिता- जन्मदाता कहलाते है।

             हर माता-पिता बहुत ही हर्ष व अकांक्षाओ  के साथ अपनी संतान को जन्म देते है। बहुत प्रेम के साथ संतान का लालन-पालन करते है। इस तरह जो भी इस संसार में जन्म लेते है वह अपनी  मर्ज़ी से नहीं वरन अपने माता-पिता की इच्छा का परिणाम होते है। जिसे माता-पिता अपनी मर्ज़ी से,अपने हिसाब से,अपनी ख़ुशी के लिए  इस संसार में लाते है ! उनके लालन -पालन में सिर्फ प्रेम नहीं होता, साथ होती है उनकी आकांक्षाएँ , महत्वाकांक्षाएँ, अधिकार और संतान के कर्तव्य।( यह अधिकार व् कर्तव्य अलिखित है, बरसो से बस माने हुए है, अतः अधिकांशतः एकतरफा से है।) सोचने वाली बात यह है कि  जो काम हम अपनी ख़ुशी से ख़ुशी के लिए करते हो तो उस काम पर आपका कोई क़र्ज़ होगा?  संतान के जन्म के बाद उनसा लालन-पालन करना माता-पिता का नैतिक फ़र्ज़ है/ कर्तव्य है। कहा जाता है की माता-पिता सा कोई निःस्वार्थी नही  इस संसार में , किन्तु गहराई  से समझी जाये तो असत्य सी प्रतीत होगी। दूसरे  शब्दों  में वे अत्यंत स्वार्थी से प्रतीत होंगे।

        अधिकांशतः  संतान को जन्म देने के पीछे भी बहुत से कारण  होते है। सिर्फ ख़ुशी के लिए उनका जन्म नहीं होता। अपना व  परिवार का नाम चलने वाला/वाली कोई होना चाहिए , कारोबार को सम्हालने या आगे बढ़ने के लिए......... इत्यादि। जब संतान को जन्म देने के पीछे खुद का कोई कारण  हो तो उन्हें निःस्वार्थी कैसे कहा जाये ....... ?? इतना ही नहीं जब संतान को बड़ा किया जाता है तब उसे माता-पिता के प्रति कर्तव्य  सिखाया जाता है  और आशा की जाती है की वह उन कर्तव्यों  पर खरा भी उतरे। साथ ही साथ हर माता-पिता अपनी संतान को अपनी आकांक्षाओ और महत्वाकांक्षाओ को पूरा करने का जरिया भी मान बैठते है। तो क्या यह भी निस्वार्थता  की निशानी है?

                   भारत एक ऐसा देश है जहाँ बच्चों  को क्या 'नहीं' करना यह तो अच्छे से और बार-बार  सिखाया जाता है परन्तु क्या करना चाहिए सही मायनो में , इस पर कम ध्यान दिया जाता है। माता-पिता अपनी संतान का सही ढंग से लालन-पालन करके अपना फ़र्ज़ बहुत अच्छे से निर्वाह करते है पर क्या कभी वह यह सोचते है कि  उनका यह फ़र्ज़ उनकी अपनी संतान के लिए क़र्ज़ में बदल रहा है। जीवन में बच्चा एक बार तो जरूर यह सोचता होगा कि  क्या हमारा जन्म सिर्फ कर्तव्य पूर्ति  के लिए हुआ है? क्यूँ भूल जाते है माता-पिता, कि  जन्म तो उन्होंने अपनी मर्ज़ी से दिया है परन्तु उनका फ़र्ज़ सिर्फ संतान के आत्मनिर्भर होने तक है, आगे की ज़िन्दगी के लिए संतान खुद जिम्मेदार है। जब आपने जिम्मेदार बनाया है तो जिम्मेदारी निभाने तो दीजिये पूरी तौर पर। बचपन से जिस तरह के माहौल और घर के अन्दर के वातावरण में बच्चा बड़ा होगा उसके स्वाभाव में वही झलकेगा और अपनों के प्रति उसका व्यवहार भी उसी अनुकूल होगा।

                              माता-पिता का फ़र्ज़ बच्चो के लिए क़र्ज़ क्यों बने ? कहीं ऐसा तो नहीं चूँकि आप इस संसार में लाये है तो 'ता-उम्र' उन्हें आपके ही अनुकूल चलना होगा? क्यूँ? माता-पिता की आकांक्षाओ का भार बच्चा क्यों उठाएँ ? सिर्फ इसलिये कि  आप उसके जन्म के जिम्मेदार है या परंपरा ही यही चली आ रही है? अक्सर सुनने में आता है कि -" तुम्हे पाल-पोसकर क्या इसलिये बड़ा किया है......??" तो किस लिए किया है? अर्थात  पाला-पोसा किसी कारण  से है, निःस्वार्थ नहीं पला गया है।

                                  हमारे देश में जहाँ रिश्ते फ़र्ज़ कम क़र्ज़ ज्यादा जैसे होते है जिन्हें आपको निभाना ही होता है, समाज का भी बहुत दबाव होता है, वहीँ पश्चिमी देशो में माता-पिता की जिम्मेदारी, संतान के अपने आत्मनिर्भर हो जाने की उम्र तक ही होती है। सही मायनो में फ़र्ज़ अदायगी वहीँ निभाई जाती है। भारत में न सिर्फ अपनी संतान बल्कि दूसरे की संतान, जो आपकी संतान की साथी है, उस से भी आकांक्षा राखी जाती है कि  उसका, आपके प्रति भी फ़र्ज़ है। यह कहाँ तक तर्कसंगत है?  माता-पिता के प्रति फ़र्ज़ ( क़र्ज़) समझ  भी आता है किन्तु साथी के माता-पिता के प्रति क़र्ज़ (फ़र्ज़ ) क्यों।..??

                                  नैतिकता , मानवता, और प्रेम को अलग रख कर सोचा जाये तो इस संसार में कोई भी व्यक्ति किसी के भी प्रति बाध्य नहीं है। सामाजिक रूप से  हमारा फ़र्ज़ क्या हो वह हमें खुद तय करना चाहिए।  कितनी अजीब बात है कि  हमे बचपन से समाज, माता-पिता, भाई-बहन  इत्यादि के प्रति क्या फ़र्ज़ है, बार बार समझाया और सिखाया जाता है , वहीँ हमारा देश के प्रति, देश के कानून के प्रति और देश से जो पाया है उसे लौटने  के प्रति क्या फ़र्ज़ है? इत्यादि अति महत्वपूर्ण बातों  को गौण समझा जाता है, इस बारे में सिखाने या समझाने की जरुरत समझी ही नहीं जाती।

                     संतान माता-पिता की परछाई हो सकता है किन्तु कर्ज़दार नहीं। फ़र्ज़- प्रेम ,लगाव, अपनापन, रिश्ते, नैतिकता, मानवता के दायरे में आकर निभाए जा सकते है किन्तु वह संतान के लिए क़र्ज़ रुपी नहीं हो सकते कि  उन्हें मजबूरन निभाना ही पड़े। संतान आकांक्षा और महत्वाकांक्षा पूरी करने वाली मशीन नहीं, उसकी अपनी सोच और समझ और इच्छाएँ  है, यह हमे अब  सीख लेना चाहिए।  मनुष्य एक सामाजिक  प्राणी जरूर है किन्तु समाज मनुष्यों से बना है, न कि  मनुष्य समाज से , यह कभी नहीं भूलना चाहिए। (फ़र्ज़- एक नैतिक जिम्मेदारी है तो वहीँ क़र्ज़- मांग कर , वापस करने के इरादे के साथ लिया जाता है।)

                        संतान के आत्मनिर्भर होने के साथ ही माता-पिता का फ़र्ज़ बच्चो के प्रति समाप्त हो जाता है। आगे संतान अपनी ज़िन्दगी और अपने परिवार के प्रति खुद जिम्मेदार होता है। संतान के परिवार ( पत्नी-बच्चो ) के प्रति माता-पिता की कोई जिम्मेदारी नहीं होती। इसलिए उनसे इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। हर माता-पिता का फ़र्ज़ सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान के प्रति होता है।

                                फ़र्ज़ और क़र्ज़ की इस कश्मकश में हर इंसान फसाँ  हुआ है, अंतत : जीत, उसकी बचपन से की गयी परवरिश, उसकी अपनी सोच और माहौल की, होती है। माता-पिता के प्रति आपके फ़र्ज़ को आपको किस तरह निभाना है वह प्रत्येक इंसान को स्वयं समझना होगा। किसी क़र्ज़ की तरह या माता-पिता के प्रति असीम प्रेम , लगाव और उनके प्रति नैतिक जिम्मेदारी की तरह ?  माता-पिता को भी बच्चो को प्यार और सिर्फ प्यार देकर , एक अलग व्यक्तित्व की तरह बड़ा करना चाहिए न कि अपनी  संतान होने के कारण  स्वार्थ  की सोच के साथ।

** यह सोच पूर्णतः लेखिका की अपनी है, इस विषय पर आपके विचारो का स्वागत है, कृपया अपने विचार जरूर भेजे।**


5 comments:

Unknown said...

अभी तक का मुझे सबसे अच्छा लेख लगा आपक.issme आपने जन्म एंड जार्ज के बारे मैं लिखा जरूर हैं बू.....आपने इंडियन संस्कृति और रिवाजो के अपनाने से कभी कभी हम पिछड़ जाते हैं आपने नियमो मैं बंद जाते है रियल बहुत अच्छा लगा....जीवन मूल्य और शिदान्तो के भींच हमारा संजोता और जीवन जीने की कला से अनभिग्यता का पता चलता हैं....आपका ये लेख बहुत हे युग परिवर्तन करने वाला कल्हाई रचना हैं

Vaisshali said...

aap bahut hi jyada motivate karte hai .... thanks Anuj ji

Unknown said...

पहली बार इस विषय पर इतना अच्छा लेख पढ़ने को मिला। मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ। हम बच्चे को अपनी खुशी या स्वार्थ के लिए जन्म देते हैं फिर उस पर किस बात का एहसान।
बहुत विचारोत्तेजक लेख है ।

Unknown said...

Aapne bahut likha h.Bhabhi ji.shadi ke baad aapko parivarik or samajik tor par mehsus karaya jata h ki aapko bacche chahiye...but khushi se ni...ek swarth ki bhavana ke sath..bahke hi wo swarth kisi bhi tarah ka kyu na ho ...meri beti h(bhavyashree) mai ab se or bhi dhyan rakhungi ki mai use par ko boj na dalu..

Vaisshali said...

bahut bahut aabhar ... dhanyavaad ji :)