4/22/2013

आज का संगीत : कहाँ जा रही है नई पीढ़ी ?

भारतीय संस्कृति में संगीत का बहुत महत्व है। सदियों से संगीत का कला जगत में अपना एक श्रेष्ठ मक़ाम रहा है। इसे  देवकला, राजकला तक कहा गया है। यह कला की श्रेष्ठता का पता इस से चलता है कि  हमारे देवता तक इस से जुड़े हैं। सरस्वती जी के हाथों  में 'वीणा', तो शंकर जी के हाथों  में 'डमरू'. विष्णु जी का शंख और कान्हा की बाँसुरी  प्रसिद्ध ही है। यह न सिर्फ देवी-देवताओ की कला है, बल्कि उनको लुभाने का एक तरीका भी है। 

           इसी परंपरा को राजा-महाराजाओं ने और आगे बढ़ाया। संगीत के कई श्रेत्र हैं- वाद्य यंत्रो का प्रयोग, स्वरों का प्रयोग(गायन), नृत्य  इत्यदि संगीत का ही रूप है। संगीत की साधना पूजा के बराबर मानी गयी है। हमारे देश में जहाँ विविध वाद्य-यंत्रो का प्रयोग होता है, वहीँ गायकी के भी बहुत से रूप है। राग-रागिनियों द्वारा परंपरागत गायकी हो या भजन, लोकगीत हो या हमारी फिल्मो का संगीत, सभी का अपना अपना एक स्थान है, जिनका आधार एक ही है। इन सभी में परंपरागत गायकी, लोकगायन और भजन को ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है। यही स्थिति नृत्य के साथ भी है। 
       
                  जैसे-जैसे वक़्त बदलता रहा, वैसे-वैसे संगीत भी। जहाँ पहले शास्त्रीय संगीत को बहुत अधिक महत्व दिया जाता था, वहीँ धीरे धीरे अर्ध- शास्त्रीय संगीत का प्रचलन बढ़ने लगा। चूँकि शास्त्रीय संगीत समझना जन-साधारण के बस की बात नहीं है। फिर जैसे-जैसे फिल्मो का चलन बढ़ा वैसे ही फिल्मी संगीत ज्यादा पसंद किये जाने लगा। 
          
                   वक़्त और ज़माने के साथ न सिर्फ भारतीय फिल्मो का रूप बदला बल्कि संगीत में भी बहुत परिवर्तन आये। जहाँ पश्चिमी देशो के प्रति आकर्षण बढ़ा  , साथ ही हम उनकी संस्कृति और संगीत भी अपनाने लगे। आधुनिकता सिर्फ कपड़ो से ही नहीं वरन लहज़े , शब्दों और संगीत से भी झलकने लगी। हमारी फिल्मे , हमारे समाज़  का आईना कहीं जाती है, और उसमे बसा संगीत हमारी भावनाओ को उजागर करने का एक स्रोत। आज के दौर में जहाँ हम पश्चिम का अनुसरण कर  मधुरता,कानों  में मिश्री घोल देने वाले संगीत को छोड़  तेज़ , भड़काऊ, संवेदना विहीन संगीत सुननाने लगे है , वहीं गानों के बोल में भी तेजी से गिरावट आई है। यही चिंता का विषय है। 
        
            बात सिर्फ संगीत की होती तो शायद इतना फर्क नहीं पड़ता किन्तु जिस तरह के बोलो  का प्रयोग होने लगा है, उस से समाज की गिरती सोच का पता चलता है। साथ ही पसंद करने वालो की सोच का भी। हम जिस तरह का संगीत सुनते है, जिस तरह के गाने गाते है, धीरे-धीरे हमारी सोच भी वही रूप ले लेती है।  दिन-प्रतिदिन गानों में गालियों का बढ़ता उपयोग वाकई चिंता का विषय है। हमारी नई  पीढ़ी किस ओर  जा रही है ? वहां कभी मीठे बोल और मधुर संगीत होता था , प्रेम को इश्क कहकर नवाज़ा जाता था अब वही इश्क 'कमीना' हो गया।  ' यारी है ईमान मेरा , यार मेरी ज़िन्दगी', 'तेरे जैसा यार कहाँ,' जैसे दोस्ती को एक मुकाम देने वाले गानों की जगह " हर एक दोस्त कमीना होता है' जैसे फूहड़ गानों ने ले ली है। लडकियाँ  भी 'जवानी' की नुमाइश से खुश होकर खुद को 'सेक्सी' कहलाने से परहेज़ नहीं करती। हद तो तब पार हो गयी जब लेखको और गायकों ने गालियों के साथ अति अश्लील गाने प्रस्तुत किये और हमारी आज की पीढ़ी उनको मज़े लेकर न सिर्फ सुनती है बल्कि उन गानों पर थिरककर खुद को 'आधुनिक' और 'कूल' समझने लगी। 

             जिस तरह न सिर्फ संगीत बल्कि संस्कृति का ह्रास हो रहा है, उसे देखते हुए बार बार ये सवाल ज़ेहन में उठ खड़े होते है कि -" क्या चाहती है आज की पीढ़ी ? कहाँ जा रही है ? दिशाहीन होती नई  पीढ़ी के इस रवैये से क्या हश्र होगा उनका? 
            हम बस समझा सकते है, फिक्र कर सकते है और कुछ नहीं, बाकी के प्रयास तो उन्हें खुद करने होंगे। अपने माप-दंड भी खुद ही तय  करने होंगे। 

      
                    

4/15/2013

विचार - विमर्श (चर्चा ) या बहस ??

                                                              
हम भारतीय लोग बहुत बोलते है। अन्जान  भी कुछ ही पलों  में जान-पहचान वाले बन जाते हैं। हम कभी झिझकते नहीं कुछ भी पूछने से, चाहे वह रास्ता ही क्यों ना  हो, और सुझाव देने को तो तत्पर रहते है। किसी को भी यदि हम बिन माँगे ,मुफ्त में कुछ देते है तो वह  है सलाह। हर एक भारतीय के पास खुद की समस्या के अलावा दूसरी हर एक समस्या का कोई न कोई हल तो जरूर है।  बस किसी ने समस्या बताई नहीं और हम सलाह / सुझाव देना शुरू कर देते है, सामने वाले ने आपसे माँगा हो या न माँगा हो , इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह हमारे व्यवहार का अभिन्न अंग है। 

              वैसे देखा जाये तो बात-चीत के सही तरीको से भी हम अक्सर अनजान पाए गए है।  बात-चीत के कई भाग होते है जिनसे हम स्कूल - कॉलेज में रूबरू तो होते है किन्तु रोज़िन्दा जीवन में बात करते वक़्त भूल जाते है। जैसे - साधारण बात-चीत, विचार-विमर्श करना, बहस  इत्यदि। हमे  ये  शब्द पता है और उनके अर्थ भी किन्तु रोज़मर्रा में हम बात करते वक़्त यह फर्क नहीं रख पाते कि  कब क्या होना चाहिए। साधारण सी बात-चीत कब बहस में परिवर्तित हो जाती है हमे पता ही नहीं चलता। 
       
                  विचारों  का आदान-प्रदान या विचार-विमर्श करना हमारे लिए संभव ही नहीं है,क्यूंकि हमे सही मायनो में यह तक नहीं पता कि  विचार-विमर्श करना है क्या? यह बहुत समझने वाली बात है, हम बहुत बार कहते तो जरूर है कि  चलो विचार-विमर्श ( Discuss) करते है , पर क्या हम कर पाते है ?  विचार-विमर्श करना  अर्थात " किसी एक विषय पर अपने- अपने विचार प्रस्तुत करना। " ज्ञान में निहित सक्षम विवेचना ही चर्चा है। " अर्थात अपने ज्ञानपूर्ण विचारो की ठोस प्रस्तुति। मकसद अनेक हो सकते है जैसे- किसी समस्या के समाधान पर पहुचना, अपने विचारो से दूसरो को अवगत कराना साथ ही दूसरो के विचारो को जानना, उस विषय को गहराई से जान पाना,  एक अच्छा  श्रोता बनने की कला सीखना  इत्यदि।  

                  बात वही आ जाती है कि  क्या हम ऐसा कर पाते है ? किसी भी विषय पर या तो हम सहमत होते है या असहमत। सहमत हुए तो अक्सर हम हाँ में हाँ मिलकर खानापूर्ति करने की कोशिश करते है , तो भी विचार-विमर्श नहीं हो  पाता। अगर हम असहमत हुए तो फिर विचार-विमर्श संभव ही नहीं है, क्यूंकि तब हम तर्क-वितर्क  पर उतर आते है, और अपनी ही बात को सही साबित करने में जुट जाते है और भूल जाते है की क्या करने बैठे थे। तब हमारा एक ही मकसद हो जाता है कि  कैसे भी , तर्कों से या कुतर्को से  बस अपनी बात सही साबित कर दे। तब विचार विमर्श , बहस का रूप ले लेती है। हम सामने वाले तो पूरी बात कहने का मौका ही कहाँ देते है ? बीच में ही उसकी बात काट कर अपने विचार थोपने की कोशिश करने लगते है।   हर बात पर बहस करना हमारी आदत सी बन चुकी है। हम हमेशा यही सोचते है कि - बस मैंने जो कहा वह सही , बाकी सब गलत।  हर जगह हमारा अहम् आड़े आ जाता है और हम इसके पार कभी सोच ही नहीं पाते है। साधारण सी बात-चीत में भी अक्सर ऐसा ही होता है। 

          हमें बहुत उतावलापन न दिखाते हुए, सामने वाले की बात को पूरी तरह सुनना चहिये, फिर अपने विचारो  से सबको अवगत कराना उचित होता है। जरूरी नहीं कि  वह आपसे हमेशा ही सहमत हो क्यूंकि' हर एक का अपना व्यक्तित्व और दिमाग है, जो आपके अनुसार नहीं उसके खुद के अनुसार ही चलेगा। बस सुनिए,फिर कहिए और बहस को अपनी आदत न बनाइये और फिर फर्क देखिये। :)
                                This is My 51th Post :)

4/08/2013

लेना - देना

                                         
  
लेना और देना दुनिया की बहुत पुरानी  रीत है। कहा जाता है कि - यह दुनिया, रिश्ते-नाते, दोस्ती-यारी सभी कुछ एक व्यापार की तरह ही है। जहाँ एक हाथ ले और एक हाथ दे , वाली बात होती है। कोई भी रिश्ता लम्बे समय तक एक तरफ़ा नहीं चल सकता है। प्यार भी एक तरफ़ा अपना वजूद खो देता है। प्यार की आग भी दोनों तरफ बराबर लगी हो , तब ही सही मन गया है।  पर क्या यह लेन-देन  हमेशा समान पैमाने पर ही होता है क्या ?

  क्या लेना और देना जरूरी है ? आपको किसी ने कुछ दिया , तो क्या आप वही उसको लौटाए , यह जरूरी है ? हम चीजों  का , सामान का व्यापार तो करते ही है, साथ ही साथ अनमोल से रिश्तों  का भी व्यापर कर बैठते है। रिश्तो में भी मतलब और फ़ायदा ढूंढते है। जिस से जितना फ़ायदा उस से उतना ही रिश्ता। 
    कुछ लेन -देन  रिश्तो  को बनाये रखता है तो कुछ उनके टूटने की वजह बन जाता है। जरूरी और समझने वाली बात यह है कि - हम खुद को कितना जानते है ? दिखावा करते वक़्त तो हम अपने आप को सबसे उपर, प्रत्येक रूप से, दिखाते है, पर जब आचरण करने की बात है या फिर झगडा करने की तो हमारा सही चरित्र सामने आ जाता है।  लेन -देन  का सबसे विकृत स्वरुप देखने मिलता है तो झगड़ो मे… क्युंकि तब होता है - अपशब्दों ( गालियों) का लेन  -देन। 
        असली लडाई/ झगडा शुरू ही होता है अपशब्दों से। किसी ने आपको अपशब्द कहे और हम शुरू हो गए लड़ना कि - " गाली क्यों दी" ? पर मेरा प्रश्न यह है कि  मन उसने अपने चरित्र के हिसाब से गाली दी ,पर आपने उस से "ली " क्यों ? कोई आपको कचरा या फ़ालतू सामान मुफ्त में देना तो क्या आप ले लोगे ? नहीं ना… !!तो फिर उसके दिए अपशब्द आपने लिए क्यों ? कोई आपको, मान लो कि  "कुत्ता" ( बहुत अधिक बोला जाने वाला अपशब्द) कहे , तो क्या आप बन जाओगे ? यदि अच्छे रूप में "प्रधानमंत्री" कहे तो भी क्या फर्क आएगा? आप वह बन तो नहीं गए ना?
फ़िर ..?? सोचने वाली बात है…. 

     भगवन ने आपको दो कान और उन्ही दोनों कानो के बीच दिमाग क्यों दिया है ?? कभी सोचा है आपने ?? 
   कोई अच्छा कहे तो हम तुरंत प्रसन्न हो जाते है और बुरा कहते ही क्रोधित , इसका मतलब तो यही हुआ कि  हम बिना अपने दिमाग का इस्तेमाल किये सब कुछ बस लेने में ही विश्वास  करते है। अच्छा तो उसी पल लौटते नहीं किन्तु बुरा , खुद नीचे गिरकर भी , उसी पल देने में देरी नहीं करते। अच्छा देने में यह आतुरता कहाँ चली जाती है? 
      हमे भगवन ने दोनों कानो के बीच दिमाग इसलिये दिया है कि  -हम एक कान से सुने, फिर दिमाग का इस्तेमाल करके अच्छी बातों  को रखे और बाकि सब दुसरे कान से निकाल दे।  " गवाँर  की गाली - हँस  कर टाली ". मेरे पिता द्वारा बचपन में सिखाया हुआ यह पाठ , आप यकीन मानिए , ज़िन्दगी में मेरे बहुत काम आया है। जब भी कोई अनजान या नज़दीकी  व्यक्ति कोई चुभती बात कह दे और वह बात आपकी शान्ति भंग कर दे और आप लड़ना भी न चाहे तो बस इसी वाक्य को ध्यान में लायें और फिर देखे चमत्कार , आपकी शान्ति वापस आ जाएगी।